पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२३३

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लक्ष्मण जो फिरि उत्तर दैहौ।
शासन-भग को पातक पैहो॥१३८॥
लक्ष्मण लै वन सीतहिं धाये।
थावर जगम हू दुख पाये॥
गगहि देखि कह्यो यह सीता।
श्रीरघुनायक की जनु गीता॥१३९॥
पार भये जबहीं जन दोऊ।
भीम बनी जन जंतु न कोऊ॥
निर्जल निर्जन कानन देख्यो।
भूत पिशाचन को घर लेख्यो॥१४०॥
[नगस्वरूपिणी छद]
सीता--सुनौं न ज्ञानकारिका। शुकी पढै न सारिका॥
न होमधूम देखिए। सुगध बधु लेखिए॥१४१॥
सुनौ न वेद की गिरा। न बुद्धि होति है थिरा॥
ऋपीन की कुटी कहाँ? पतिव्रता बसै जहाँ॥१४२॥
मिलै न कोउ एकहूँ। न आवते, न जातहूँ।
चले हमैं कहाँ लिये। डेराति है महा हिये॥१४३॥
[दो०] सुनि सुनि लक्ष्मण भीत अति, सीताजू के बैन।
उत्तर मुख आयो नहीं, जल भरि आये नैन॥१४४॥
[नाराच छद]
विलोकि लक्ष्मणै भई विदेहजा विदेह सी।
गिरी अचेत हैृ मनो धनै बनै तड़ीत सी॥