पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१८८)

हतौं तोहिं वाकौ करौं चित्त भायो।
महादेव की सौं बडो भक्ष पायो॥१६७॥
भये क्रुद्ध दोऊ दुवौ युद्धरता।
दुवौ अस्त्र शस्त्र प्रयोगी निहता॥
बली विक्रमी धीर शोभा प्रकाशी।
नश्यो हर्ष दोऊ सबर्षै बिनाशी ॥१६८॥
शत्रुघ्न--[दो०] लवणासुर शिवशूल बिन, और न लागै मोहिं।
शूल लिये बिन भूलिहूँ, हौ न मारिही तोहिं॥१६९॥
[मोटनक छद]
लीन्हों लवणासुर शूल जहीं। मारेउ रघुन दन बान तहीं॥
काट्यो शिर शूल समेत गयो। शूली कर, सुःख त्रिलोक छयो॥१७०॥
बाजे दिवि दुंदुभि दीह तबै। आये सुर इद्र समेत सबै॥
देव--
कीन्हों बहु विक्रम या रन मै। माँगौ वरदान रुचै मन मैं॥१७१॥
[प्रमाणिका छ द]
शत्रुघ्न--सनाढ्यवृत्ति जो हरै। सदा समूल सो जरै।
अकालमृत्यु सो मरै। अनेक नर्क मों परै॥१७२॥
सनाढ्य जाति सर्वदा। यथा पुनीत नर्मदा।
भजै सजै जे सपदा। विरुद्ध ते असपदा॥१७३॥
[दो०] मथुरामडल मधुपुरी, केशव स्ववश बसाइ॥
देखे तब शत्रुघ्नजू, रामच द्र के पाँइ॥१७४॥