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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२५२

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(२०२)

[ दोधक छद ]
पातक कौन तजी तुम सीता ।
पावन होत सुने जग गीता ॥
दोष विहीनहिं दोष लगावै ।
सो प्रभु ये फल काहे न पावै ॥२३७॥
हमहूँ तेहि तीरथ जाइ मरैगे ।
सतसगति दोप अशेष हरैगे ॥
वानर राक्षस ऋच्छ तिहारे ।
गर्व चढ़े रघुवंशहि भारे ॥
तालगि कै यह बात विचारी ।
हौ प्रभु संतत गर्व-प्रहारी ॥२३८॥
[ चचरी छंद ]
क्रोध कै अति भरत अंगद सग सगर कों चले ।
जामवंत चले बिभीषण और बीर भले भले ॥
को गनै चतुरग सेनहिं रोदसी नृपता' भरी ।
अवलोकियो रण मै गिरे गिरि से करी ॥२३९॥
लव-भरत युद्ध
[ रूपमाला छद ]
जामवंत विलोकि कै रण भीमभ्र हनुमत ।
श्रोण की सरिता बही सुअनंत रूप दुरत ॥


(१) रोदसी = भूमि आर आकाश। (२) नृपता = राजाओं
के समूह।