( ३४ ) अरुणगात अति प्रात पद्मिनी प्राणनाथ भय । मानहुँ केशवदास कोकनद कोक प्रेममय ॥ परिपूरण सिंदूर पूर कैधों मंगल-घट । किधौं शक्र को छत्र मढयो मानिक मयूष पट । कै श्रोणितकलित कपाल यह किल कपालिका काल को । यह ललित लाल कैधों लसत दिग्भामिनि के भाल को ॥ बस, एक पंक्ति ने सारा गुड गोबर कर दिया है ! कहीं कहीं तो प्रस्तुत वस्तु ऐसे अरुचिकर रूप में सामने आती है कि केशव की रुचि पर तरस आए बिना नहीं रहता। वे एक जगह रामचद्र की उपमा उल्लू से दे गए हैं- वासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत । और कहीं कहीं पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत वस्तु में कुछ भी समानता नहीं होती, केवल शब्द-साम्य के बल पर अलंकार गढ लिए गए हैं। पंचवटी का यह वर्णन लीजिए- पांडव की प्रतिमा सम लेखो । अर्जुन भीम महामति देखो। है सुभगा सम दीपति पूरी । सिंदुर की तिलकावलि रूरी। राजति है यह ज्यों कुलकन्या । धाइ विराजति है सँग धन्या। केलिथली जनु श्री गिरिजा की। शोभ धरे सितकठ प्रभा की। अब बताइए अर्जुन से अर्जुन के पेड का, भीम से अम्ल- वेतस का, सिंदूर के तिलक से सिंदूर के पेड का और दूध पिलानेवाली धाय से धाय के पेड का क्या सादृश्य है ? सिवा इसके कि कोश मे एक ही शब्द दोनों का पर्यायवाची मिलता
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