पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/४१

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है। इसे यदि किसी का जी खिलवाड कहने का करे तो उसका इसमें क्या दोष ? इस शब्दसाम्य के कारण कहीं कहीं पर तो रामचंद्रिका के पद्य बिलकुल पहेली हो गए हैं। जहाँ जहाँ उन्होंने सभग-पद-श्लेष के द्वारा एक ही पद्य में दो-दो तीन-तीन अर्थ ठूसने का प्रयत्न किया है वहाँ भी यही हाल हुआ है। 'जाको देन न चहै बिदाई, पूछ केशव की कविताई का यही रहस्य है। सदेह और उत्प्रेक्षाएँ उनके हाथ पर बड़ी खिलती हैं। इनके एक-एक उदाहरण हम ऊपर दे आए हैं। बहुधा वे इन दोनों का संकर कर जाते हैं, जो भद्दा भी नहीं लगता। 'परंतु इनका सबसे प्रिय अलंकार परिसंख्या है जिसके आकर्षण के आगे राम-कहानी के प्रसिद्ध लेखक प० सुधाकर द्विवेदी भी न ठहर सके। रामचद्रिका में परिसख्या का बाहुल्य है। यहाँ पर एक ही उदाहरण देगे- मूलन ही की जहाँ अधोगति केशव गाइय । होम-हुताशन-धूम 'नगर एकै मलिनाइय ॥ दुर्गति दुर्गन ही जो कुटिलगति सरितन ही में । श्रीफल को अभिलाष प्रगट कविकुल के जी में। केशव सस्कृत के विद्वान थे। उनको इस बात का गर्व था कि हमारे घर के नौकर भी 'भाषा' बोलना नहीं जानते और इस बात का खेद कि हमें भाषा में संस्कृत की छाया काव्य करना पड़ रहा है। इसलिये हिंदी में काव्य करते हुए सस्कृत काव्यों का अपने आप उनकी