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[हरिगीत छद]
शुभ द्रोणगिरिगण शिखर ऊपर उदित श्रीपधि मी गनौ।। वह वायु वश वारिद वहौरहि प्रझि दामिनि द्युति मनौ ।। अति किधों चिर -प्रताप-पावक प्रगट सुरपुर को चली। . यह किधों सरित मुदेश मेरी करी दिवि खेलात भली ॥२४॥ [दो०] जीति जीति कीरति लई, शत्रुन - की वह भांति ! . पुर पर बाँधी सोभिजे, माना तिनकी पाति ॥२-11 . त्रिभगी छद] सम सब घर मा. मुनि मन लोभ , रिपुगण छोमैं, देग्यि सबै । ' ' बहु ददुभि वाजें, जनु धन गाजै , दिग्गज लार्जे, मुनत जवे ॥ जहँ तह श्रुति पढ़हीं, विधन न चढ़हीं, जै, जस महीं, सकल दिशा । , सबई मब विधि छम, वसत यथाक्रम, देवपुरी सम दिवस निशा ॥२६॥ [दडकला छद] कवि'कुल, विद्याधर, सकल कलाधर', राजराज' वर वेप बने। (१) कवि = कवि, शुक्र । (२) विद्याधर = विद्वान् गधर्व । (३) कलाधर = कलाविज्ञ, चद्रमा । (४) राजराज = बड़े बड़े राजा; कुवेर ।