पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/६१

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सागर उजागर की बहु , वाहिनी' को पति, छनदानप्रिय किधौं सूरज अमल है। सब विधि समरथ राजै राजा दशरथ, भगीरथपथगामी २ , गगा कैसो जल है ॥४१।। [दो०] यद्यपि ईधन जरि गये अरिगण केशवदास । " तदपि-प्रतापानलन, के पल पल बढत, प्रकाश ॥४२॥" तोमर छद] बहु भाँति पूजि सुराइ । कर जोरिकै परे पाइ॥ हँसिके कह्यो ऋषिमित्र । अब बैठ राजपवित्र ॥४३॥" . मुनि-सुनु दोनमानसहस । रघुवश के अवतस ।।। - ___मन माह जो अति नेहु । इकु बस्तु माँगहिं, देहु ॥४४|| [दोधक छद] राम गये जब ते वन माहीं । राक्षस वैर करै बहुधाहीं॥ रामकुमार हमैं नृप दीजै । तौ परिपूरण यज्ञ करीजै ॥४५॥ [तोटक छद] - यह बात सुनी नृप नाथ जबै । Pan शर से लगे आखर चित्त सबै । (१) वाहिनी = नदी, सेना। (२) उत्सव के अवसर पर दान देना प्रिय है जिसको (दशरथ ); क्षण क्षण ( समय ) का दान देना प्रिय है जिसको (सूर्य ) अथवा क्षणदा (रात्रि) नहीं है प्रिय जिसको (सूर्य), क्षण (तत्काल) दान देना प्रिय है जिसको (दशरथ), क्षणदा%3 क्षण (विराम वा विश्राम) देनेवाली, रात्रि। (३) भगोरथपथ - कुला- द्धार के लिये अनवरत परिश्रम, जिस मार्ग से भगीरथ के रथ के पीछे पीछे गगा चली । (४) ऋषिमित्र = ऋषियों में सूर्य के समान, ऋषिश्रेष्ठ ।