मण-अरुण गात अति, प्रात/ पद्मिनीप्राणनाथ। भय ।। .मानहुँ केशवदास कोकनद । कोकप्रेममय । .. परिपूरण सिंदूरपूर कैधौं मगलघट । किधौं शक्र को छत्र मढयो मानिकमयूषपट ।। श्रोणितकलित कपाल यहकिल कपालिका काल को । ललित लाल , कधी लसत दिग्भामिनि के भाल को ॥९२॥ [तोटक छंद] ११ पसरे कर कुमुदिनि काज मनो। किधौं पद्मिनि को सुख देन घनो। जनु ऋक्ष सबै यहि त्रास भगे। "जिय जानि चकोर दान ठगे ॥९३॥ . [चचरी छंद] चंद्र-व्योम मे मुनि देखिये अति लाल श्रीमुख साजहीं ।। सिंधु मे बडवाग्नि की जनु ज्वालमाल बिराजहीं। १. 'पद्मरागनि की किधौं दिवि धूरि पूरित सी भयी। सूर वाजिन की खुरी अति तिक्षता तिनकी हुयी ॥१४॥ श्वामित्र-सो०] चढयो गगन तरु धाइ,दिनकर-बानर अरुणमुख । ..कीन्हों झुकि झहराइ, सकल तारका कुसुम विन ॥१५॥ हमण-दो०] जहीं बारुणी' की करी, रचक रुचि द्विजराज ! को तहीं कियो भगवत बिन, सपति शोभा साज ॥९६॥' ) बारुणी= पश्चिम दिशा; मदिरा। (२) द्विजराज = चद्रमा, ब्राह्मण |
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