पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१०३

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रामस्वयंवर। पैही हरप देखि पद पंज सहित नवल दोउ भ्राता ॥४८६६ मति प्रसन्न है कह्यो गाधिसुत भली कही मिथिलेसू ।। गवनहु राज राजमंदिर कहं मैं रहिही यहि देव ॥ सुनि मुनि वचन मुदित मिथिलापति मुनि पद कियोपनामा ! आसिषलै दोन्यो परदच्छिन गयो हरषि निज धामा ४८७॥ वस्तु अनेक बिसेष विमल वर बहु विदेह व्यवहारा । पठयो विश्वामित्र सुनीसहि तैसहि राजकुमारा॥ सतानंद पुनि आय सुनीसहि रघुपति लपन समेतू । सादर सपदि लेवाय जाय दिय डेरा विमल निकेतु ॥४८८॥ (दोहा) जनकनगर सोभा सुनत, स्वर्ग न जासु समान । लषन-लालसा लखन की, लाखन विधि अधिकान ||४८६॥ (कवित्त) मिथिलानगर सोभा देखन को लोमा चित्त, मुनि के सकाचबस कढ़ति न बात है । तैसे जेठ बंधुरघुनायक सकोच पाय, लाज लरिकाई की अधिक अधिकात है ॥ रघुराज मुनिन समाज अभिलाष तैसी, जानिकै मनोरथ मनहिं सर. सात है । उर ते उठत कंठ आइकै फिरत नट, बट को तमासो लखि राम मुसकात है ॥४६॥ (दोहा) .. जानि लषन पुर लखन रुख, प्रभु नेसुक मुसकाय। जोरि जलज फर कहत भे, मुनि सों पद सिर नाय ||४६१R