पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१०८

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रामस्वयंबर। देखे धनुप-मख-भूमि चलि जेहि लखतलजत अनंगा|५१२॥ अति विसद थल सम मध्य गव बिल्लौर की मनु नीर। विलसत वितान महान झालर झुको मुकुतन भीर ॥ चहुं ओर परम उत्तंग मंच विरंचि विरचित भूरि। नहिं कतहुं रंचक जन विसंचक संत्र कर नहिं दूरि ॥५१३॥ तिनके तहां पाछे कछुक मंचावली यक और । जेहि माह बैठहिं जानपद संकेत होइ न ठौर ॥ पाछे तिनहुँ के धवल धाम विदेह दिय बनवाय । पुरनारि वैठि निहारि कौतुक लहैं मोद निकाय ॥५१४॥ सोहत रजत के मंच छड़ बैठक कनक के भूरि । कलसी कलित रतनावली तेहि भरे चंदन चूरि ॥ प्रभु-पानि-पंकज पकरि बालक देत सकल दिखाय। पूछेहु बिना पूछेहु बनक थल देहि विविध बताय ॥५१५॥ बालक यतावन ब्याज प्रभु कर करत परस तुराय । मुसकाय कबहुं लजाय कबहुं बताय आग जाय । रचना स्वयंवर भूमि की लखि करत कौतुक नाथ । जकिसे रहत ठगिसे रहत हरि हेरि मीजत हाथ ॥५१६॥ लपनहि बतावत विविध विधि कोदंड मत संभार । मानत मनहि महि आय निज कर कियो कुलि करतारण कोउ कहत बालक प्रभुहिं निकट बोलाय पानि उठाय । तुम कतहुं देखे अस नहीं अस मोहिं परत जनाय ॥५१००