२४ रामस्वयबर । आये पुनि अपने निवास मह केसरि तिलक संवारे ॥२४॥ रहे फूल नहिं तेहि श्रीसर महँ चेलन चूरू विचारी। जानि अनेक हेत कुलकेतुहिं रामहि कह्यो हंकारी। तात जाय तुम जनकनाटिका सुमन सुगंधित लावो। तहँ की सकल कथा कहि हम सों महामोद मन छायो १५२५॥ सुनि गुरु-आयतु रघुनायक नह सहित लपन धनुपानी । चले कुसुम तोरन चितचोरन थोर न आनंद आनो ॥ अति अभिराम अराम राम लखि लहि सुखधाम ललामा। कहो लपन सों लादत वचन अस यह वन मन विश्रामा ॥५२६॥ यह विदेह-बाटिका सोहावनि सुखछावनि सवही की। आनंद-उपजापनि मनभावनि हाँठ हुलसा पनि ही को॥ यहि विधि करत बंधु सन घातन गये वाटिका झारे । द्वारपाल चित चकित निहारे सुंदर राजकुमारे ॥५२॥ चोले मंजुल बचन राम तहँ द्वारपाल कछु सुनिये । आये फूल लेन फुलवाई जान देहु भल गुनिये ॥ द्वारपाल चोल्यो कर जोरे हरि लोनो मन मोरा। यह · विदेह की फूल वाटिका जाहु चले चितचोरा ॥२८॥ [सोरठा] । दसरथ-राजकुमार, प्रविसे फुलवारी हरपि । छन छन बिपुल पहार, सदा बिहार बसंत जहँ ॥ २२६ ॥ . . [ कवित्त ] कंचन कियारिन में फर्टिक फरस फावें, तामें भरें
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/११०
दिखावट