पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१२९

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रामस्वयंवर। कछु आनंद उर मानि जानको पूजि धनुप तिहि काला। चली पहुरि जननी समीप कह लै सखिद बिसाला ॥ राम लखत सीता की छवि को सीय राम अमिरामै । उभय दृचगल भये अचंचल प्रीति पुनीति सुदामै ॥ ६६२ ॥ ' (दोहा) अवसर जानि विदेह तह चंदीजगन बुलाय । सतानंद अभिमत महित सासन दियो सुनाय ।। ६६३ ।। राजसमाजहि मध्य में द्वै बंदीवर जाय । बोलत भये पुकारि कै दोऊ भुजा उठाय ॥ ६६४ ॥ मौन होउ नरनाह सब करि कोलाहल बंद । महाराज मिथिलेस को यह प्रन सुनहु खछंद ॥ ६६५ ॥ (कवित्त रूप घनाक्षरी) विदित पुरारी को पिनाक नवखंडन में परम प्रचंड त्यों अखंड ओज पारावार । बड़े बड़े वीर परिवंड भुजदंडन सों खंड महिमंड जस जान चाहै पैरि पार ॥ आजलों न देखे तीर केते पली बूड़े वीर गुरुता गंभीर नीर पीर पाय माने हार । थैयालयास विरचि जहाज रघुरा आज पाए साई सर- ताज भूमि-भरतार ॥ ६६६ ।। उदित उदंड जो हजार भुजदंडन सों दिग्गजन जीत्यो सैल फोरयो पलि को कुमार । राजत अचल अधंग शिव सह तोल्या कर में कमल सो निसाचर को सरदार ॥ दोऊ महामानी वीर संभु के लगसन को नाय सिर