पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१३८

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१२२ रामवयंवर । (छंद हरिगीतिका) धनु-भंग कीन्हो रंगभूमि समाज मधि रघुवीर। ' रव भयो घोर अघात बहु निर्घात सम प्रद पीर । देखे परे पुहुमो पिताक द्विखंड तेज अपार ।' तिनके निकट ठाढ़े सहा अवधेस-राजकुमार ॥७०८॥ तिमि सकल पुरजन भये ठाढ़े किये जय जयकार । मिथिलेस सुकृत सराहि पुनि जय कहहिं अवधकुमार ॥ • गोवन लगी पुरनारि मंगल गीत चारिहु ओर।' तिहि समय बढ्यो उछाह अति जनु भुवन लागतथोर ७०६ (छंद गीतिका) तेरियो सरासन-संभु को जव अवधराजकिसोर।। भूपति चमूपति लगत इमि चुप बैट मानहुँ चोर ॥ " उड़िगै बदन की लालिमा फिफरी परी अधरानि । इक एक देखत कहत नहिं मनु भई सरबस हानि॥७१०॥ मुद के महोदधि मगन भे मिथिलेस गदगद कंठ। को कहै तिनको हिय हरष मानहुँ लहे वैकुठ॥ मिथिलेस तव चलि गाधिसुत के चरन कीन प्रनाम । . अस कह्यो तुम इत ल्याइरामहि कियो पूरन काम॥७११॥ सो संशुधनु भज्यो सहज यह सांवरो रघुलाल! ' अब होय न सते मेलै सुता जयमाल ॥ .

तब महामुनिः .. । चोले पुण्य राउर भूरि।

सिवचापतन फल फूल समक्यों सर्केरामन तुरि ॥७१२॥