१४३ रामस्मयंवर। दसरथ जनकनयन जुरिगे जब दोउ अभिवंदन कीन्हे । दोऊ पंकज पानि पसारि मिलाय लूटि सुख लीन्हें ॥८४२॥ कियो प्रणाम विदेह वशिष्ठहि पूछयो कुसल सुखारी । सतानंद को बंदे दसरथ छवै पग पानि पसारी ॥ भरत कुअर रिपुसूदन संजत जनकाह किए प्रणामा । लक्ष्मीनिधि कोसलपति वंदे लै अपने मुख नामा ॥३३॥ (चौपाई) घाछ परसपर सब कुसलाई । उभय भूप मुद लये महाई ।। कह्यो विदेह वहुरिकर जोरे। तुम्हरी कुलल कुसल अब मोरे।। तुम सम भूप न होवनहारे । राम लपन अस जासु कुमारे ॥ सुनि मिथिलापति-चन सुखारे । कह दसरथ द्वग वहत पनारे जनकराज तुम हौ सव लायक कसन कहौ अस तचन सुहायक कहँ मिथिलेस बसे दोउ भाई । कोन हेत ल्याए न लियाई ॥ अस कहि दोउ नय स्पंदन फेरे । वैरख फिरे दोउ दल केरे ॥ नगर निकर है चली वराता। लखन हेतु पुरवासिन बाता। जनक नगर मह फैली वाता। जनवासे कह जाति बराती। गए निवासहि लपन नहाई । प्रभु को दीन्हीं खबरि जनाई ।। • अस सुनिगेमुनि पह दोउभाई। कहे वचन मृदु बिनय सुनाई। उनियत नाथ पिता पधारे। दर्सन लोभी नयन हमारे॥ (दादा) कहे वचन कौसिक विहंसि, चलिह हमहुँ विसेंपि .. . . अर्जुन कोउ तुव पितु सरिल, लियो लोकत्रा लेपि ॥८५०॥
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१५९
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