पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१६१

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रामस्वयंवर। तिहि अवसर आये दोउ भ्राता । गहे दौरि गुरुाद-जलजाता॥ निरखि गाधि उन कोरालगजा गिरिगहि रह्यो गाढ़ जुग पाऊ। राम लपन पुनि दोउ सुखलाने । पिता-चान पंकज लहाने ।। लिय उरललकि लगायभुआला। तुलै न ब्रह्म मोद तिहि काला। सरत शत्रुहन पुनि दोउ भाई । परे चरन रघुपति के जाई ।। (दोहा) यहि विधि समतों मिलि तहाँ पितु मुनि-बंधु-समेत ॥ जाय वितान तरे मुदित बैठे कृपानिकेत ॥ ६ ॥ उठ्यो भूप भी जन करत संजुत चारि कुमार। चले राजवंशी सकल संग करन व्यवनार ॥८६४॥ (छंद चौथोला) यहि विधि भोजन करत सुतन भुत यदत वचन सुखलाने ।। करि आचमन उठे अवनीपति आनंद साहिं अघाने ॥ धोय चरन कर पहिरिवसन कछु सयनसदन नृप गयऊ। इतै राम लै बंधु सखा सब वैठि प्रमोदित भयऊ ।।८६५॥ पूछन लागे कथा सखा सब भरतलाल फरि आगे। फहन लगे प्रभु चरित किया जस सहज लाज रसपागे हैसि बोल्यो कोउ राम विवाह काहे जनक कुमारी । जह चाइहु तहं तुम पपान ते लेहु प्रगट करि नारी १८६६॥ यहि विधि हास विलास करत प्रभु सखन:संगजुत भाई। .धावन चलि तव खपरि जनायो मिथिलाराज-प्रवाई ॥ परिचर वोलि फयो कोशलपति रामहि ल्याउ लिवाई।