पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५२ रामस्वयंबर। नहिं समान देउ कुल के दूसर पर प्रत्यच्छ दिखाई। यह समान संबंध धर्मजुत दोउ कुल दोउ अनुरूपा । राम लपन लिय और उर्मिलाच्याह उचित अतिभूपा 18001 ताते मार विचार होत अस कुशध्वज-जुगल-कुमारी। हाय विवाह भरत रिपुहन को अनुमति यही हमारी॥ राम-जानकी लषन-उर्मिला जिहि दिन होइ उछाहै। ता दिन दोउ कुशकेतु-कुमारी भरत शत्रुहन व्याहै ॥६०१॥ दुलह चारि चारि दुलहिन, नृप! निरखि जनकपुरवासी। रघुकुल निमिकुल धन्य होइगो हमहुँ लहब सुखरासी। सुनत जनक पुलकित तनु हर्षित भरि आनंद जल नयना। नाय चरन सिरजारि कंज-कर कह कौशिक सेक्यना॥६०२॥ .. दोहा। हाय एकही संग मुनि, चारि कुमारन व्याह । सोधि साधि सुघरी सफल, लखो अथाह उछाह ॥१०॥ (छंद चौवोला) मिथिलापति के कहत वचन अस सभा-मध्य इक बारा । परिजन पुरजन गुरुजन सजन कीन्हें जयजयकारा ।। तिहि अवसर विरंचि पठवायो नारद मुनि तहँ याये। उठी समाज देवऋषि देखत जुगल भूप सुख पाये॥१४॥ दशरथ जनक परे चरनन में नारद आसिष दीन्हें। घोड़स विधि कीन्हें नृप पूजन अतिथि अनूपम चीन्हें ।। विश्वामित्रघशिष्ठ मिले दोउ मुनिजन कीन्ह प्रणामा।