पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१७६

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रामस्वयंबर। मंदहि मंद चलायत वाजिस देते सवा इलारे खबर राजमंदिर महं पहुँची आरत चली बराता । कह्यो विदेह वोलि लक्ष्मी निधि जाहुलेन तुम ताता। जनककुमार सुमत चढ़ि बाजी रहयो लेन अगवानी । धो पुरट घट सिर सधवा तिय चलो सहस छवि खानी। (दोहा). अगवानी आई निकट, रुकिगै सकल वरात । लक्ष्मीनिधि वंदन कियो र पूछो कुसलान 18391 सुा विदेह को नेह व अवधनाय हरपाय । पानि परि निज नाग पै लान्या हाय || गवानी को चार करि गमनी चाह रात । राजकुंवर दुहुँ ओर के प्राति "नवाया जात ।।९५० (छंद गीतिका) रघुनाथ रूप निहारि तह त्रिपुरारि कहत विवारिक। दिखिहा दिसै दूलह द्वगति नहिं पांव नयन उघारिक। • अति अंग कोमल कठिन द्वग कछु जाय जो ढिा गरम । धरिहा कहां वह अजप्त मिटिई जन्म जन्म न सरमहू ॥१५॥ विधि जानि शिव अनुमान विहें से आठ अपने नयन से। • अभिराम राम स्वरूर पेखत नहीं या दृग चैन से ।। परमुख कहो तब हरपि विधि से आज हम तुमसे बड़े। पितु-पूत मिलिडे बढ़ द्विगुन सुखलहे नयनन को खड़े। १५२॥ यहि विधि विनोदित वचन मंजुल सुर परमाखहीं।