सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामस्वयंवर। • सबते अधिक सुख शक तिहिते दून शेषहि राखही ॥ गमनत बरात सुहात यहि विधि निकट सहरपनाह के । आईं जबै पुरलोग सब देखत भरे सु उमाह के ॥ ५३॥ घर घर बजत वाजन विविध मिथिलापुरी ध्वनिमय भई । देते.वरातिन नारि नर करि युक्ति गारी रसमई ॥ यहि भॉति देखत नगर हास विलास बहु विधि करतई ॥ मिथिलेश-मंदिर जाय द्वार बरात सव ठाढ़ी भई ॥१५॥ (दोहा) जनक-महल के द्वार को चौक महा विस्तार । भरत भीर जस जस मनो तस तस बढ़त अपार ॥५५॥ (चौपाई) जनक-राजमहिषी छविखानी।साजि सुश्रालिनि अति हरषानी॥ रचि आरती कनक मनि थारा । पठई जहाँ द्वार को चारा ॥ उज्ज्वालित आरती अपारा । लीन्हे पानि पुरट के थारा। खड़ी सुआसिनि कि कतारा । कनक कुंम सिर सजत अपारा॥ परत पाँचडे पायन मंदो ! करि आगे दूलह सानंदा । रामसरत लक्ष्मण रिपुशाला । तिन पाछे दशरथ महिपाला ॥ चल्यो द्वार कोचार करावन । जनु विधि लोकपाल-जुत पावन यहि विधि अंतहपुर के द्वारे । लै दूलह नरनाथ पधारे ।। शतानंद तह अवसर जानी। बुलवायोजनक हि मुद मानी ॥ उत आयो मिथिला कोराजा । इत स्तुत-जुतोशल महराजा