समस्वयंबर । (दोहा) सुमिरत सीतारलपद, दशरथ जनक सनेह । व्याह दरात उछाह सुख, हिमगिरि बस्यो अछेह ॥१०॥ अवध प्रत्यागमन (छंद चौवाला) . विश्वामित्र नये जव हिमगिरि मागि विदा दोउ राजै। मुनि वशिष्ठ तब लगे विचारन कौन उचित अब काजै ।। आयो शतानंद तिहि अक्सर मुलि वशिष्ठ दिग माहीं। अति सत्कार सहित दैआसन कुसल पूछि तिन काहीं॥ १०२॥ गौतमलुत सौं को बचन पुनि शतानंद तुम ज्ञाता । वीत्यो बहुत काल मिथिलापुर निवसे विशद घराता।। कौशल्या कैकयी लुमित्रा जे दशरथ महरानी। बार चार लिखती मुहिं पाती दुलहिद लखनलुभानी॥१०॥ ताते जाय जनक सलुन्जाव कर कुमारि बिदाई । उक्ति न अब राज्य बरात को चलें अवधनृपराई ।। सुनि वशिष्ठ के पचन यधेचित शतानंद मुनि भाख्यो। काहत सुनत यह वचन दुलह पै उचित विचारहि राख्यो ।। हम सब जाय वुझाय जनक को करिही मिदा तयारी । तुम समुभाबहु अवयनाथ को होहिं न जात दुखारी ॥ तव मुनि गौतम-लुवन विश करि दशरथ निकट सिधाग्यो। . चैटिशांत शांतरस संजु येन अवैन उचात्यो ।।१०५॥
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१९४
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