पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१९९

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रामस्वयंबर! संजुत सफल बंधुन चले मिथिलेश कुवर लिवाइकै ॥१३०॥ प्रभु जाय अंतहपुर सबंधुन चरन चंदे सास. के । मिथिलेश-महिषी चूमि मुख बैठाय सहित हुलास के॥ कुशकेतु की महिषी तहाँ चलि त निउछावरि करी । पुनि सिद्धि आई सखिन संत रतिलजावति रतिभरी।।१३१॥ (चौपाई) उतै अवधपुर करन पयाने । भूप चक्रवर्ती अतुराने ॥ सहित वशिष्ठ सुवृंद समाजा । गमन्यो विदा होन हित राजा । अवधनाथ की जानि अवाई । लियो द्वार ते निमिफुलराई ॥ ल्याय सभी मंदिर बैठायो । करि सत्कार बहुरि अस गायो। जो सासन कर कोशलराऊ । करों सीस धरि विन छलछाऊ॥ तर वशिष्ट बोले मृदु धोनी । सुनहु जनक भूपति विज्ञानी । करन चहत अब अवध पयाना। चिते बहुत दिन जात न जाना। कुवरि विदा करि सुदिवस आजू । देहु रजाय सजाय सुसाज । मुनि धरि धीरज भूप विज्ञानी। बोल्यो वचन जारि जुग पानी॥ तुम त्रिकाल ज्ञाता मुनिराई । मोरे सिर पर आप रजाई ॥ बहुरि विदेह सनेह पढ़ाई । दशरथ तो मलि विनय सुनाई। तुम समरथ कोसलपुरराऊ । लोलसिंधु जग प्रगट प्रभाऊ । जामु राम अस पुत्र प्रधाना । लकै कौन करि विरुदखाना। सौंपहुँ नाथ कुमारी चारी । पालव लधु सेगकी विचारी।