रामस्वयंवर। (छंद चौबोला) मुनि कुलवधू वृद्ध नृप बानी कही सुनैनै जाई । अवसर जानि चार करिवे हित सो बाहर फढ़ि आई ॥ कहो विदेह सनेह विवस हे पहुँचैहौं कछु दूरी। यह कुल रोति नाथ बरजौ जनितुव विछुरनि दुखमूरी ॥१४८ नृप प्रनाम करि चल्यो चढ्यो रथ बाजे विविध नगारे। मिथिलापति तो कह वशिष्ठ सय सुदिवस सुभग विचारे ॥ यही मुहूरत महँ कन्या सब चलें भवन ते राजा। द्वितिय मुहरत नहिं सुभदायक करहु आसुही फाजा ||१४६!! ( दोहा ) सुनि वशिष्ठ के चयन वर, कुशध्वज सहित विदेह । लक्ष्मीनिधि को संगल, गे अंतहपुर गेह ॥ १५० ॥ लीन लाय उर जनक सिय, तनक रह्यो न सम्हार ॥१५१॥ डूबी धीर जहाज जनु, प्रेमहि पारावार ॥ (चौपाई) जस तसकै धरि धीरज राजा । बोल्यो बिलखत मंद अवाज कीन्हो सासु ससुर सेवकाई । पतिव्रत धर्म कपहुँ नहिं जाई॥ ल्याउब हम इत बारहि बारा । किहहु न नैसुक मनहिं खभारा॥ करिहैं मोसे अधिक दुलारा । शानिसिरोमनि ससुर तिहार इतना कहत गरोभरि भायो । जनक निफरि तक बाहर आयो। मिली सीय कुशोतुहि जाई । तनु ते धीरज गयो पराई।
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२०१
दिखावट