पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२०४

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१८८
रामस्वयंवर।

१८८ रामस्वयंबर। अतिसय भयानक श्याम घनमंडल उठ्यो चहुँ ओर ॥१६८० सवके गये हग दिव्याकुल सैन्य भर तिहि काल । यफ संग सकल विहा बिस्तर उठे वोलि निहाल । फरि सैन्य दच्छिन और धावन लगे बहु मृग-माल । वह काक गृद्ध उलूक बोलत अतुभ अति तिहि काल ॥१६॥ सबके हृदय कंपन लगे पशु एहत दृग जलधार । पति भौति भय डोलन लगी तह धरनि बाहिबार । लैनिक सकल ठाढ़े विकल मुख ववन बोलत हाय । अव प्रलय जग महँ होन चाहत पचव नाहिं दिखाय ॥१७॥ तह मुनि वशिष्टादिक महर्षि लशंक हर्प विहाय । लागे पढ़न स्वस्त्ययन मंगल वित्त मह अकुलाय ॥ उत्पात पति अवलोकि रघुकुल-कमल चारिहु भाय । आये निकट नरनाथ के मातंग तुग बढ़ाय ॥११॥ (दोहा) तिहि अवसर तह भस्त्र के, अधिकार के वीच । देखि परभृगुरति विश्ट, सिगरी सैन्य नगीच ॥१७॥ (छंद भुजंगप्रयात) जटाजूट जाने ललैं सोस माहीं। त्रिौ सजे भाल में सर्वदाहीं । अनेकानि रुद्राच्छ की लंप माला। वधी त्यों जटा जूट में ज्योतिजाला ॥ १७३ ॥ '. लसै कुडलो कर्ण रुद्राच्छ केरे। ..