पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२१३

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रामस्वयंवर।

रामस्वयंबर। .१६७ (कवित्त) बहुरि लपन बोल्यो सुजस तिहारो विन तुमसे अधिक नहि दूसरा कहैया है। कहत आघाने जोन होहु पुनि भाषी खूब रसना तिहारी कहौ कौन रोकवैया है। भारही से भाषौ जस गारी जनि दीजै हमें ना तो नहि रहे फेरि कीरति गवैया है। रघुराज आज रघुवंसी कहवाय कोऊ तिलभरि भूमि ते न भमरि भगैया है ।। २१६ ॥ (दोहा) लपन पचन सुनि परशुधर धरयो परशु कर घोर। कहो पुकारि उठाय भुज दोष नहीं अब मार ॥२२०॥ धरत परशुधर के परशु शत्रु शाल धनु धारि । यदि आगे बोल्यो वचन रिस यस सुरति विलारि ॥२२१३ (सवैया) दीन्यो बसाइ पिचारिकै विन लिहे कुल्हरा कर सांस न लेहूं। मारिकै छद्रन छत्रिन को अवै विप्र भरो तुव वर्ष है देई ॥ गादो परयो फवहूं नहिं संगर बादि अवै द्विजदेव है। गेहूं। आयजुरेरघुराजसेधिोखे बचाने नहीं शिवलेश बसेहूं ॥२२२॥ (दोहा) . इत पाछे करि राम को ठाढ़े तीनहुँ बंधु । परशुराम ठाढ़े उतै धरे परसु निज कंधु ॥ २२३ ॥ जानि युद्ध जिय होत तहँ भूपहु-ब्रह्मकुमार। खड़े भये तव बीच में कीन्हें बचन उचार ॥ २२४ ॥