रामस्वयंवर। १६६ जाय शंभु लो कह करतारा । दानव त्रिपुर कहा किहि मारा। विष्णु को हम सर है लागे । मरे तबहिं खल त्रिपुर अभागे । शंभु पायो तर विना चलाये । काके लग्यो जाय करि घाये। विधिपुनियहुरि विष्णु पहँ आया। कहे त्रिपुर से कोजय पायो विष्णु को हम निपुर पिदारे। मृपा शभु निज विजय उचारे यहि विधि विधि उपजाय विरोधूचिह्यो लड़ावन कियोन बोधू। भयो विरोध क्रोध घस दोऊ । हरि हर लरै लखें सब कोऊ ॥ तयहि विष्णु कीन्यो हुंकारा । शंभु धनुप जड़ भयो अपारा । तव विधि सुर ऋपि काहे हुलासी।सियते बली विकुठविलासो। रन महँ जड़ता तासु निहारी । मे उदास धनु महँ त्रिपुरारी॥ देवरात से कयो पुरारी। थाती धरह नरेस हमारी॥ विष्णु सुन्यो शिवधनु दै डारा भृगुकुल कमल ऋचीक हकारा लाई धनुप दियो धरि थाती । मुनि चीकको गुनि रिपुधाती अहै ऋचीफ पितामह मारा । भी जमदग्नि तासु पुनि छोरा। दियो ऋचीक ताहि धनु सेोई । त्रिभुवन विजय करन घल जाई शस्त्र छोडि लैपितु संन्यासा । वैध्यो आश्रम तजि सब आसा ॥ बरवस हरयो सहसभुज गाई । मैं हूँ आप खवरि जब पाई ॥ काट्यो अर्जुन के भुज सीसा तासु सहस दस पुत्र बलीसा॥ मेरे वैर पिता कहँ मारे । तब हम दसौ हजार संहारे॥ गयो नसहि पितुवध कर कोपा । यफइस चार किया नृश लोपा। (दोहा) मैं कश्यप को वोलि पुनि कीन्ह्यों यज्ञ महान । '
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