पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०८ रामस्वयंपर। माग्यवान इक्ष्वाकुवंश महँ भयो न कोउ महराजू ॥ २६॥ तिहि अवसर केकयनरेश को कुंवर युधाजित नामा। आयो राजराज दरबारै अहै भरत को मामा ॥ करि प्रणाम दशरथ को तैसे पुनि बंद्यो गुरु काहीं। पूछि कुशल फोशलनरेश तिहि वैठायो ढिग माहीं ॥३०॥ कह्यो युधाजित भागनेय मम कह चारिह कुमारा। तिनहिं बुलावहु आसु भूपनि चहीं विसेष निहारा॥ सुनत स्याल के वचन महीपति पठे सुमंत तुरंता । भ्रातन सहित राम वुलवायो आयो अति विलसंता ॥३०१ पैठायो भपने आगे तिन बंधु कैकयी रो। राम वदन निरखत अनिमिष चख आनंद लह्यो घरो॥ हुलसि कह्यो कोशलपति सों अस करी विनय मम माता । लखन चहै। मैं भरत सुतासुत जाय ल्याइयो ताता ॥३०२॥ बहुत दिवस बोते इत निवसत अव अ कृपा करीजै। भरतहि पठे पासु हमरे सँग सासु श्वशुर सुख दीजै ॥ सुनत भूपमनि विरहविबस तह कढ़ी न मुज कछु पानी। भेजत बनत न रोकत यनत न भै टुचतई महानी ॥३०॥ गवनहुँ भरत युधाजित के संग केकयदेश सुहावन । . अपने मातामह को मेरी कहियो नति अतिपावन ॥ चंचलता तजि रह्यो रीति महँ मातुल कुल महं प्यारे। बहुत वुझाय फही कातुमको सप गुनसुखद तुम्हारे ॥३०॥ पितुसासन धरि सीस भरत उठि जनक कमलपद चंदे।