पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२२८

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रामस्वयंवर।

रामस्वयंवर। (दोहा) रामहि दै जुवराज-पद करहु भुप विश्राम । हम सब को अब काहिही, होय पूर मनकाम ॥ ३२६॥ (चौपाई) सुनि गुरु वचन भूपमनि हर्षे । वारहिबार नयन जल व ॥ . गदगद गर बोले मृदु वानी । परम भाग्य आपन हम जानी ॥ प्रगट्यो पूरव पुण्य प्रभाऊ । जेठ कुवर पर सबकर भाऊ॥ अस कहि नृप उठि परम अनंदी । दोल्यो गुरु पद पंकज चंदी प्रजा प्रकृति परिजन सुखभीजे । कहत राम अभिषेक करीजै ।। चैत मास यह परम लुहावन । फाल्हि पुष्य नच्छबहु पावन ॥ इतनी सुनत भूप की रानी । जय ध्वनि भै दरवार महानी ।। दिय वशिष्ठ सासन नृप मागे । रहे जोरि कर सब अनुरागे ।। नुन लुमन्त साजहु लय साजू । सुवरन रत्न औषधी भाजू। करीनगर त चोष अनेका । होत लोर रघुपति अभिषेको ॥ असवशिष्ट मुनि परम प्रवीने । उचित और सासन सब दीने। को सूप सों पुनि सुनि वानी । सासन दियो लचिव सव आनी रहह लुचित नृप होत प्रमाता। होय राम अभिपेक विख्याता ॥ सचिव राम कह ल्याइ लिवाई। पेखन वहहुँ भवन सुखदाई ॥ (दोहा) . पिता सचिव सावत निरखि, उठ्यो भानुकुलमान । नर्यादा-पोलक प्रवल राम सरिस नहिं भान ॥ ३३७ ॥