पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२४६

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रामस्वयंवर।

रालवयंवर। ___... - "रावण-अंगद-संबाद कृदि गयो कपि एक फलंका लंका के दरवाजा। लखी निशाचर सभा प्रभा भर रांजत रविण राजा॥ वैठ्यो तमकि मध्य कपि कुंजरं मार्तड इव भासा। कह दशशीश कान ते बंदर आयो किमि मम पाला॥३३॥ अंगद कह्यो चह्या तेरो हित में आयों इत धाई। नायक अखिल ब्रह्म-अंडन के परब्रह्म रघुराई : लेक राज दीन्यो रघुनायक वोलि विभीषण काही राम-सरन विन ताहि दशानन कतहुँ ठिकाना नाहीं ॥४३४|| मेरे पितु की रही मिताई तोसे सवन सुनी मैं। आयो तोको वेगि बचावन तुव हित हेत गुनी मैं |* विधि वरदान विवस दर्पित है कियसुर मुनिअपकारा। लहन चहत फल तासु आसुही करिले मनहिं विचारा ॥४३५॥ - (दोहा) । " वालिसुवन के वचन सुनि, कह दश बदन रिसाय! ४३६॥ को ते को तेरो पिता, राम लपन को आय ? ॥ (तोमर छंद) कानन सुन्यों यक कीस । 'रह वालि वानर ईस ।' जो वालिसुत त होइ । तो दई कुल की खोइ ॥४३॥ कह कहु कुसल कह वालि । सोरहो अति वलसालि ॥ तर को वालिकुमार । जिन करहु मनहिं खभार ॥३८॥