पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२४५

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रामस्वयंवर।

रामस्वयंवर २२६. कपिकुलराज चालिनंदन नले नीलादिक उत्साही । सव सों कहो राम भापहु अबसमय उचित का चाही ॥४२७॥ भन्यो विभीषण आजु सचिव मम आयलंक.ते-भाल्यो। रावनहूँ चारिह द्वारन. रच्छन हित राक्षस राख्यो । सुमत विभीष गवचन अवधपति कियो सैन्य ची भागा। कहो नील सेनापति के तुम जाहु पूर्व वड़भागा ॥४२८॥ दच्छिन दिसि महं सावधान अति गवनै वालिकुमारा। वैसहि कपिन सैन्यजुत पश्चिम गवर्ने पवनकुमारा॥ हम लछिमन लंकापति कपिपति रहिहैं उत्तर द्वारा। । अस कहि चले सैन्य लै रघुपति चढ़े सुचेल पहारा ॥४२॥ कहो लपन सो पुनि रघुनायक होत अमित उत्पाता। जानि परत राक्षस वानर'को वै है समर निपाता। अस कहि उतरे सैल सुवेलहि सैन्यसहित रघुराई । हनुमत अंगदादि पानर सब गये लंक नियराई ॥४३०।' जिनको जिनको चारिहु द्वारन प्रथम लगायो रामा। ते ते कपिवर तीन वाहिनी लै गवने तिन ठामा ॥ घेरि गई लंका चारिहु दिसि पवन कड़न गति नाहीं । कोटिन कोटि ऋच्छ अरु बानर बढ़तक्रमहि क्रम जाहीं ॥४३१ ।। यहि विधि लंका के 'मुर्चा करि मंत्रिन राम बुलाई। ‘कियो मंत्र अंगद पंठवन को साम' करन रघुराई ॥ बालिकुमारहि वोलि कयो प्रभु. लंक जाहु रनधीरा। कह लगि कहाँ बुझाय चतुर तुम जानत निज पर पीरा ॥४३२॥