पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२७४

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२५८
रामस्वयंवर।

२५८ रामस्वयंवर! उडि नाय लीन लगाय उर अहि भागभुजनि पसारि ५३६॥ उपहार दीन्हो जो विभीषण लियो रघुकुलराज । कृतकाज मान्यो आपने को आय सहित समाज || तहँ खड़ो सन्मुख पवनसुत गिरिसरिस परम विनीत । परसंसि तिहि रघुवंसमनि कह वचन परम पुनीत ॥५३७॥ जो होय कपि अब उचित तो लै लंकनाथ निदेश। तुम जाहु लंकहि आसु वैदेही वसति निहि देस। सुनि पवनसुवन प्रमोद भरि प्रभु जलज पद सिरं नाय । लै लंकनोथ निदेस आसुहि चल्यों चौगुन चाय ॥५३८।। दोहा ।

कुशल प्रश्न पूछन सकल, लखि हनुमत मुसक्यात । भापत सकल निसाचरन, सुखी हमारे भ्रात ॥५३॥ . साता-आगमन और अग्निपूवेश । . .. (चोपाई) . . . . . . गयो असोकवाटिका जवहीं । जनकसुता कह देखत तवहीं । दूमिहि ते कपि कियो प्रनामा । कहि जय जय जगदंब ललामा ॥ देवि.कुसल कोसलपुर राजा। कुसल कीज्ञपति सहित समाजा।।

रावण कुभकर्ण घननादा । मरे समर मह पाय विपादा॥

सुनि कपिवचन विदेहकुसारी। आनंदमगन न गिरा उचारी॥ जप्त तसकै पुनि सुरति सम्हारी। बोली वानि विदेहकुमारी ।। रामविजय सुनु पवनकुमारा । भयो मोर जीवन.. रखवारा ।।