पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२७५

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रामस्वयंवर।

रामस्वयंवरः। नाथ-विजय भाज्यो नहिं आई। तिहि बदला नहिं पर दिखाई ।। जनकसुता के बचन सुहार । सुनि हनुमंत बहुरि तिर नार॥ देख रजाय मातु अब जा। जहाँ लपन अल, कोसलनाह ।। दोहा। पवनसुवन को गमन गुनि कह्यो विदेहकुमारि । फोन घरी प्यासे नयन हैहैं सफल निहारि ॥५४५॥ पवनसुवन बोल्यो वचन नहिं विलंब जगदंव । पियपूरनससि-बदन लखि पैही मोद कदंब ॥५४॥ अस कहि सीतांचरन जुग बंदि सुखद हनुमंत । चल्यो तुरंत अनंत सुख आयो जहं भगवंत ॥५४७॥ (चौपाई) प्रभुपद प्रमुदित कियो प्रनामा । सीय खबरि पूछी तहँ रामा। कलो पवनसुत जोरे हाथा । सिय दरसन चाहत रघुनाथा ॥ दंड छैक लगि राम विचारी । कह्यो विभीपग काहि हकारी॥ • नुनि प्रभुलासन निशिचरराजा। चल्यो लंक भरिमोद दराजा॥ तहाँ दैत्य दानव की कन्या। सिय मज्जन ,करवाई धन्या॥ दिव्य विभूपन पुनि पहिराई । पोड़स. विधि गार बनाई। मनिन-जाल की रुचिर पालकी चढी सुतामिथिलाभुपाल की। । यहि विधि ले ली . लंकेला। गयो जहाँ रविवंस दिनेसा॥ तहँ सीता के दरसन काजा । झुकी वलीमुख वीर समाजा.॥ कलमन पसो कपिन को भारी। सहि न गयो प्रभु कह्योपुकारी।। सुनहु विभीपण सखा हमारे । वरजह.निज राक्षसन अपारेः।।