२६३ रामस्वयंवर (चौपाई) खा धिनय सुनि दीनदपाला। बोले जल भरिनयन विसाला॥ कीन्हो सखा सकल सत्कारा । तुम्हें उन में जुग न हजारा॥ भरत समीप बसत मन मोरा तुमसे चलतसखानहि जोरा।। चित्रकूट मह जब हम आये। घर ते भरत मनावन धाये ॥ मुहि लेचलन भरत अभिलापी ! मैं निज पिता प्रतिक्षा रापी । भरत दियो पुनि वचन सुनाई। ऐहो जो प्रभु अवधि विताई ॥ तो मुर्हि नाथ जियत नहिं पैहो। यह कलंक किहि भाँति मिटेहै। सखा हमहु यह चूक हमारी । कियो न कोप सनेह विचारी ।। विनती करहुँ सखा कर जोरी । लाउ विमान जानिरुचिमारी॥ भया सिद्ध सिगरो मम काजा। कीन्यो ताहि लंक महराजा।। (दोहा) राम वचन कल्यान गुनि, लंकराज मतिमान । जाय लंक ल्याए तुरत, कामग पुप्पविमान ॥५८५॥ (चौपाई) अवसर जानि भरत सुधि कैकै । वैदेही लछिमन सँग लैकै॥ पुहुपविमान चढ़े रघुराई । राजासन बैठे छविताई ॥ खड़े चहूँकित कीस अपारा। कपिपति अंगद पवनकुमारा || वली यलोमुख मुख्य निहारी । वाले मंजुलबचन : खरारी ॥ तुमसे उन कबहुँ हम नाहीं। जाहु सवै निज निजघर काहीं॥ मागि विदा हमहूँ सत्र पाहीं। करहिं पयान अवधपुरकाहीं॥ तह निशिचर चानरकुलभूपा। कहे वचन कर जोरि अनूपा ।
पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/२७९
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