पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/३३

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१६ रामस्वयंवर। (छंद चावाला) यहि विधि ते आरंभ वाजिमख भयो वसंतहि काला। दिसा विजय करि यशतुरंगम आइ गयो तेहि काला ।। उत्तर सरजूतीर मनोरम होन लग्यो हयजागा। . . शृङ्गीऋपि मागू करि मुनिवर करै कृत्य बड़भागा ॥८६॥ निज निज आसन वैठि वैठि द्विज नितप्रति कर्म कराहीं। करहिं अवाहन सकल देवतन भाग देन मख माहीं ॥ होता भंगी ऋपि, वशिष्ठ मुनि शिक्षा मंत्र विज्ञाता। पढ़ि पढ़ि मंत्र देत देवनको माग सराग विख्याता ॥ ८७ ।। सविधि रत्नमंडित बहु खंभन अति विशाल मखशाला। छाये वसन अनूपम जिनमें बंधे सुरभि सुम माला ॥ बड़े बड़े वहु रन चमकत जिमि सप्तर्षि अकाशा। रंभखंभ मंडित अखंड अति तोरन तड़प तमाशा ।। ८८॥ कौशल्या केकयी-सुमित्रा-पतिजुत कर्म कराहों। वाजिमेध वाजी छवि राजी वैध्यो तुरंग तहांहीं ॥ वेद विधान कियो मन राजा हीन कर्म कछु नाहीं। शृङ्गी ऋषि अरु गुरु वशिष्ट मुनि फरवाये नृप काहीं ॥८॥ प्राची दिसि होता कह दीन्ह्यो रघुकुल वंस प्रधाना। . अध्वर्यहि पश्चिम दिसि, ब्रह्महिं दक्षिण दिसि मतिवानो ॥ • उद्गातहि उत्तर दिसि दीन्हा यज्ञ दक्षिणा मारी। अश्वमेघ मख कियो समापत दै पुहुमी निज सारी ॥ १०॥