पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/३४

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रामस्वयंवर । १७ यहि विधि सकल राज्य दै विप्रन भयो सुखी नरनाहू । मुनिवर आय विनय कीन्ह्यो पुनि यह हमरे उर दाहू ॥ यह पृथिवी रच्छन में समरथ आपुहि एक भुवाला। हम ब्राह्मण जप तप व्रत जान लेवन मही विशाला ॥११॥ निष्क्रय देहु कछुक भूपतिमनि मनि सुबरन पट गाई । सदा उन शासन रहिये प्रभु आपु सकल महि लाई.॥ सुनि द्विज वचन हरपि भूपतिमनि निष्क्रय वखसन लागे। दियो लाख दस सुरभो सुंदरि दानसील अनुरागे ॥३२॥ सौ फरोरि मोहर पुनि दीन्हों मुद्रा चौगुन तासू । दियो ऋत्विजन विविध दच्छिना हय गय बसन अवासू॥ शृंगी ऋपि अरु गुरु वशिष्ठ वह विप्रन कियो विभागा। हरपि विप्र सव दै आसिष पुनि बोले जुत अनुरागा ॥३॥ सब विधि हम तोपित नरनायक अब नहिं आस हमारे । द्विज आसिष प्रभाव ते पूजै सव मनकाम तुम्हारे ॥ की ऋपि को वोलि अवधपति कह्यो यचन सिर नाई। कुलवर्द्धन अव करहु यज्ञ प्रभु जाते सुत हम पाई ॥४॥ . (दोहा) गो ऋपि मेधा विमल, कियो दंड जुग ध्यान। . सावधान है नृपति सो लाग्यो करत बखान ॥६५॥