पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/९१

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रामस्वयंबर । - बसे सरित तट तरुन तर, लै कौशिक मुनि भीर। संध्योपासन हेतु किय, गवन लषत रघुधीर ॥४२२॥ विश्वामित्र मुनीस को, आगम सुनि हरपाय । सुमति भूप आवत भयो, अगवानी हित धाय ॥४२३॥ जोरि पानि पंकज कहो, कुसल रहे मुनिराय । मोहिं धन्य धरनी किया, दरसन दीन्हो आय ॥४२४॥ यहि बिधि भाषत मुनि नृपति, बचन विदित व्यवहार । संध्या करि आये उभय, दसरथ-राजकुमार ॥४२५॥ (कवित्त) मानो एक संग आवै भानु सितभानुदाऊ, मानाद्वै सरीर .कै सानु छबि छावैं हैं। फैलत प्रभा के पुंज गंजन मदनमद, हद सुखमा के भरे चखनचोरा हैं। भनै रघुराज विश्वमोहनी • नजरि पास फाँसैं मन विहंग न जान अंत पावै हैं। देखत स्वरूप अवधेसजू के लालन के, पलक प्रदात मंद करनी बना हैं ॥४६॥ (सोरठा) लपन राम अवलोकि, उठी तुरंत समपारे । सुमति नैन जल रोकि, कौशिक सोंप्रन निहारे ॥ (छंद झूलना) न दिखाना। ...'बचन बखाना ॥४३६॥ . आफ़ताब सो एक माहताब सो दूसरा खूब हैं । रुाव या ख्वाब में देखने में दु.