- संगीत विशारद *
१११ इससे सिद्ध होता है कि विवादी स्वर की व्याख्या रत्नाकर आदि ग्रन्थों में रहस्यपूर्ण ढङ्ग से भिन्न-भिन्न रूप में पाई जाती है। कई ग्रंथों में विवादी स्वर को राग का दुश्मन भी “शत्रुतुल्याः विवादिनः” कहकर बताया गया है । इतना सब होते हुए भी स्वर्गीय भातखण्डे जी का मत विवादी स्वर के बारे में यह था कि यदि कुशलता पूर्वक कण के रूप में विवादी स्वर का प्रयोग कर दिया जाय और उससे राग की रंजकता बढ़ती हो तो "मनाकस्पर्श" के नाते वह कृत्य क्षम्य समझा जावेगा। उन्होंने अभिनव राग मंजरी में लिखा है:- सुप्रमाणयुतोरागे . विवादी रक्तवर्धकः । यथेष कृष्णवर्णेन शुभ्रस्यातिविचित्रता । 'सङ्गीत समयसार' ग्रन्थ में विवादी स्वर की व्याख्या "प्रच्छादनीयो लोप्यो वा" इस प्रकार की गई है । प्रच्छादन का अर्थ है "मनाकस्पर्श' अर्थात् किचित मात्र विवादी स्वर का प्रयोग । इस प्रकार आजकल हम देखते भी हैं कि कुशल गायक अपने राग में विवादी स्वर का किंचित प्रयोग करके श्रोताओं से प्रशंसा प्राप्त कर लेते हैं और राग का स्वरूप भी नहीं बिगड़ने पाता, बल्कि उसमें कुछ और विचित्रता ही पैदा हो जाती है । किन्तु यह कार्य अत्यन्त सावधानी से ही करना चाहिये। इसके विरुद्ध यदि गायक चतुर न हुआ और बेढंगे तरीके से वह विवादी स्वर का प्रयोग कर बैठे तो राग-हानि तो होगी ही, साथ ही वह श्रोताओं से निन्दा भी प्राप्त करेगा। इसलिये विवादी स्वर का जब कभी प्रयोग किया जाय तो क्षणिक कण के रूप में या जलद तानों में ही करना शोभा देगा। इस मत का समर्थन 'राग विवोध' में इस प्रकार मिलता है-"वय॑स्वरोऽवरोहे द्रुतगीतो नरक्तिहरः” अर्थात् वर्जित स्वर द्रुत गीतों में सौंदर्य को नष्ट नहीं करता। वर्तमान समय में अनेक रागों में विवादी स्वरों का प्रयोग होने लगा है। जैसे हमीर, कामोद और गौड़सारङ्ग रागों में कोमल निषाद विवादी स्वर के नाते जब कण स्पर्श या द्रुत लय की मींड़ के साथ प्रयुक्त किया जाता है तो उस समय बड़ा अच्छा लगता है । इसी प्रकार केदार, छायानट, रागों में तो विवादी स्वर ( कोमल निषाद ) का प्रचार इतना बढ़ गया है कि कभी-कभी श्रोतागण आश्चर्य चकित हो जाते हैं। और भैरवी की तो कुछ पूछिये ही मत, उसमें तो विवादी स्वर का प्रयोग आजकल इतना बढ़ गया है कि यह राग ७ स्वरों की जगह १२ स्वरों का हो गया है। अर्थात् कोमल स्वरों के अतिरिक्त रे ग मध नि इन तीव्र स्वरों का भी प्रयोग इसमें खूब खुलकर लोग करने लगे हैं। किन्तु विवादी स्वरों का अधिकताके साथ प्रयोग करना रागों के साथ अन्याय करना है। विवादी स्वर आखिर विवादी ही है, अतः उसका प्रयोग सीमित रूप में और कुशलता के साथ करना ही उचित है।