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पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१०७

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  • सङ्गीत विशारद *

मे लागू नहीं किया जा सकता। फिर भी सङ्गीत के विद्याथियों को अपनी प्राचीन राग- रागिनी पद्धति के बारे में जानकारी रसना आवश्यक है । प्राचीन राग-रागिनी पद्धति का सण्डन करते हुए सर्व प्रथम (१८१३ ई० मे ) पटना के मुहम्मदरजा ने अपने ग्रन्थ 'नगमाते आसकी' में लिसा है कि प्राचीन राग- रागिनी-पुत्र-पुत्रवधू की कल्पना गलत और अवैज्ञानिक हैं, क्योंकि राग और उनकी रागनियों के स्वरो म समता नहीं पाई जाती। अत मुहम्मदरजा ने विलावल थाट को शुद्ध थाट मानकर सर्व प्रथम अपना एक नगीन मत प्रचलित किया । इनका कहना है कि रागो और उनका रागनियों के स्वरों में कुछ सामजस्य अवश्य होना चाहिये, अत इन्होंने ६ राग और ३० रागिनी का अपना नवीन मत तत्कालीन सगीतज्ञों के सम्मुस रक्सा। उन्होंने हनुमत मत से मिलते-जुलते राग रागनियों के नामों पर नवीन स्वरों का निर्माण किया । रजा साहेव की यह पद्धति भी बहुत समय तक प्रचलित रही, किन्तु बाद मे आधुनिक ग्रन्थकारों द्वारा यह पद्धति तथा प्राचीन राग रागनी की सभी पद्धतिया छोड़कर थाट-राग पद्धति चालू हो गई। प्राचीन ग्रन्थकारों ने सगीत की उत्पत्ति देवी-देवताओं से मानी है, अत इन राग रागिनियों को भी उन्होंने पुरुप राग और स्त्री रागिनी के रूप मे देव-देवी स्वरुप ही मानकर वर्गीकरण किया । उनके स्वरूप भी वर्णन किए गए, जिनके आधार पर राग-रागिनियों के चित्र भी बन गये जो आज तक पाये जाते हैं । . जिस युग मे, जैसे रागा का प्रचार होता है, उसी के आधार पर उस युग के विद्वान सङ्गीत शास्त्र की रचना करते हैं, किन्तु सङ्गीत परिवर्तनशील रहा है। प्राचीन अन्यों में रागो के वर्णित स्वरूप या स्वर आज के प्रचलित राग स्वरों से मेल नहीं साते । उदाहरण के लिये राग मालकौंस को लीजिये। प्राचीन शास्त्रों से यह मालवकौशिक, मालकोश, मालकौंस आदि नामों से मिलता है । सङ्गीतदर्पणकार ने मालवकौशिक के स्वर सा रे ग म प ध नि सा दिये हैं। हृदयप्रकाश में सा रे ग ध नि सा, सा नि ध म ग रे सा इस प्रकार बताया है, किन्तु आजकल जो मालकौंस राग प्रचलित है, वह रे-प वर्जित होकर सा गम नि सा, सा नि ध म ग सा इस प्रकार है । ऐसे ही अन्य बहुत से रागो के नाम तो आज. कल मिलते हैं, किन्तु उनकी स्वरावली बिलकुल दूसरे ही रूप मे है । इन्हीं सब कारणों से प्राचीन राग रागिनी पद्धति धीरे-धीरे पीछे छूटती रही और थाट पद्धति से रागों की उत्पत्ति की गई | आजकल थाट-राग पद्धति ही भारत में प्रचलित तथा मान्य हो रही है।