पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१०८

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११५ माथाकों के मुख-पावन सङ्गीतं मोहिनीरूपमित्याहुः सत्यमेव तत् । योग्यरसभावभाषारागप्रभृतिसाधनैः । गायकः श्रोतमनसि नियतं जनयेत् फलम् ।। -लक्ष्यसङ्गीतम् योग्य रस, भाव तथा भाषाङ्ग की उचित रूप से साधना करते हुए जो गायक गाता है, उसका सङ्गीत मोहनी रूप होकर श्रोताओं के मन को जीतने में अवश्य ही सफल होगा। इसीलिए हमारे प्राचीन ग्रन्थकारों ने गायकों के गुणावगुणों का वर्णन बड़े सुन्दर ढङ्ग से किया है। उन नियमों पर ध्यान देकर जो सङ्गीतज्ञ अपनी कला का प्रदर्शन करता है, उसके गाने का रङ्ग महफिल में शीघ्र ही जमजाता है । इसके विरुद्ध कुछ गायक ऐसे देखे जाते हैं जिन्होंने या तो “गायकों के गुणावगुणों' का शास्त्रों में मनन ही नहीं किया है, अथवा वे उन्हें जानते हुए भी अपनी आदत से मजबूर होकर उन पर ध्यान नहीं देते । इसका परिणाम यह होता है कि उनकी भद्दी हरकतें ( मुद्रा ) महफिल में रङ्ग जमाने के बजाय, हास्य का वातावरण पैदा कर देती हैं। क्योंकि श्रोताओं में सभी तरह के व्यक्ति होते हैं । कोई गीत की कविता पर ध्यान देता है, तो कोई गायक के सुरीलेपन और लयकारी को देखता है, अथवा कोई गायक गायिका के रूप रङ्ग तथा उसके हाव-भाव प्रदर्शित करने के ढङ्ग में ही आनन्द लेता है। इस प्रकार सङ्गीतकला के सभी अङ्गों से भिन्न-भिन्न प्रकार के श्रोता अपनी-अपनी रुचि के अनुकूल रस्वास्वादन करते हैं। ऐसी हालत में यह निश्चय ही है कि गायक के गुण-अवगुण महफ़िल का रङ्ग बनाने या बिगाड़ने में कितने सहायक होते है। अतः प्रत्येक सङ्गीत विद्यार्थी को आरम्भ से ही ध्यान देकर गायको के गुण अपनाने चाहिये और अवगुणों से बचना चाहिये। आरम्भ में जैसी आदत पड़ जाती है, वह आसानी से नहीं छूटती। यदि शुरू में ही हाथ पैर फेंक-फेंककर या टेढ़ा मुँह करके, भद्दे ढङ्ग से दांत दिखाकर गाने की आदत पड़ गई तो उससे पीछा छुड़ाना मुशकिल हो जायगा और इसका परिणाम यह होगा कि सङ्गीत समाज मे उसे सम्मान और सफलता कदापि नहीं मिलेगी। ऐसे गायकों की स्थिति बताते हुए लक्ष्य सङ्गीतकार ने ठीक ही लिखा है:- भाषाऽव्यक्ता हावभावाः प्रतीयन्ते विसंगता । व्यस्ताश्चेष्टास्तथाऽऽक्रोशाः केवलम् कर्कशा मताः ॥ एतादृग्गायनान्नस्यात् परिणामो ह्यभीप्सितः। ततो हास्यरसस्यैव केवलम् स्यात् समुद्भवः ॥ ७३ ॥ -लक्ष्यसङ्गीतम् उपरोक्त श्लोक का भावार्थ यही है कि भद्दे ढङ्ग से चिल्लाकर और ऊटपटांग हाव- भाव दिखाने से महफिल में केवल हास्यरस का ही वातावरण पैदा होता है।