- सङ्गीत विशारद *
१३३ चैती होली के बाद जब चैत का महीना आरम्भ होता है, तब 'चैती' गाई जाती है । इसके गीतों में भगवान रामचन्द्र की लीलाओं का वर्णन रहता है। पूर्व मे बिहार की तरफ इसका प्रचार अधिक है । इसमें अधिकतर पूर्वी भाषा का प्रयोग होता है। ठुमरी गायक "चैती" भली प्रकार गा सकते हैं । लोकगीत लोकगीत उन्हें कहते हैं जो विशेषतः, घर-गृहस्थी के मंगल अवसरों पर एवं विशेष त्यौहारों या उत्सवों पर महिलाओं द्वारा नगरों तथा गावों में अपनी-अपनी प्रान्तीय या ग्रामीण भाषाओं में गाये जाते हैं। पुरुष गायकों द्वारा गाये हुये लोकगीत भी होते हैं । लोकगीतों में हमें भारतीय प्राचीन संस्कृति मिलती है, यही कारण है कि हमारी राष्ट्रीय सरकार इधर कुछ समय से लोकगीतों के प्रति आकर्षित होकर रेडियो आदि के द्वारा इनके प्रचार को विकसित करने का प्रयत्न कर रही है। यहां पर हम लोकगीतों के कुछ प्रकार पाठकों की जानकारी के लिये दे रहे हैं:- (१) घोड़ी, बन्ना, ज्यौनार, जनेऊ, भात, मांडवा, गारी, आदि लोकगीत उत्तर प्रदेश में बृज भूमि की ओर विशेष रूप से प्रचलित है, जिन्हें महिलाएं विवाहादि अवसरों पर मिलकर गाती हैं। (२) विरहा-यह गीत यादव (ग्वालवंश) में प्रचलित है । विवाह के अवसर पर कन्या- पक्ष के व्यक्ति वर पक्ष के यहां जाकर नगाड़े के साथ विभिन्न पैंतरेबाजी दिखाते हुए रात भर 'विरहा' गाते हैं। (३) निर्वही-सावन भादों में खेत निराते समय यह गीत गाये जाते हैं। (४) चन्दैनी- यह ग्वालों ( यादवों ) का गीत है। प्रायः देहातों में ग्वाला लोग इसे गाते हैं। (५) सोहर-यह गीत प्राचीन समय से ही महिलाओं में प्रचलित है, जो बच्चा पैदा होने के अवसर पर गाया जाता है । पहिले तो सोहर केवल ढोलक के साथ ही गाये जाते थे, किन्तु आजकल शहरों में हारमोनियम और ढोलक के साथ भी महिलाएँ सोहर गाने लगी हैं। (६) झूमर-यह गीत कई प्रकार का होता है, जैसे विरहा का झूमर, जिसे यादव निपाद या खटीक गाते हैं, दूसरा कजरी का झूमर जिसे वर्षाऋतु में गाया जाता है और तीसरी प्रकार का भूमर शीतला देवी की पूजा के समय गाया जाता है । (७) नउआ भक्कड़-यह नाइयों का गीत है, विवाह शादी के अवसरों पर कई व्यक्ति मिलकर इसे गाते हैं, साथ-साथ झांझ खंजरी भी बजाते रहते हैं।