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पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१२७

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  • सङ्गीत विशारद

गायक रागालाप करते समय ओताओं के सम्मुख पालाप की व्यारया करते यह भी बताते थे कि हम अमुक राग गा रहे हैं, किन्तु रूपकालाप में कुछ बताने-कहने की आवश्यकता नहीं थी, वह तो श्रोताओं को मत ही प्रतक्ष प्रवन्ध के समान दिखाई देता था रूपफालाप शब्दहीन होता या अर्थात उसमें बोल या ताल इत्यादि नहीं होते थे। इस प्रकार रागालाप की अपेक्षा रूपकालाप को विशेष महत्व प्राप्त था और इसे रागालाप की अगली मीढी माना जाता था। श्रालप्ति रागालाप ओर रुपकालाप मागे वढने पर 'श्रालप्ति' की बारी आती थी आविर्भाव और तिरोभाव करते हुए राग को पूर्ण रूप से प्रदर्शित करना हो आलप्ति पहलाता है। आविर्भाव-तिरोभाव किमी राग का विस्तार करते समय उमके बीच में अन्य मम प्रकृतिक रागों के छोटे-छोटे टुकडे दिमाकर, थोडी देर के लिये मुग्य राग को छिपाने 7 उपक्रम जब किया जाता है तो उसे 'तिरोभाव' कहते हैं। और फिर मुरय राग के स्वरों को कुशलता पूर्वक दिसाकर रागरूप स्पष्ट करने को "आविर्भार" कहते हैं। इसे एक उदाहरण मे इस प्रकार समझना चाहिए, जैसे वसत राग गायक गारहा है और गाते-गाते उसमें निपाट पर न्यास करके परज राग की छाया दिग्याने लगे, तो उसे तिरोभाव कहेंगे। फिर वमत के स्वरों की मुख्य पकड लगाकर वसत को स्पष्ट कर दिया जाये तो वह 'आविर्भाव' कहा जायगा । यह भार अत्यन्त मनारजक होते हैं जो राग गायन के बीच में या अन्तिम समय आने पर ही प्राय कुशल गायक दिग्नाते हैं। स्थाय छोटे-छोटे स्वर समुदायों को प्राचीन ग्रन्थकार स्थाय कहते थे । मुखचालन रागोचित विविध गमफ-अलकारों का प्रयोग करते हुए गायन-वादन करने को "मुग्म चालन" कहते हैं। आनिप्तिका स्वर, और ताल की सहायता से जो रचना तैयार होती है, उसके प्रयोग को प्राचीन पडित आक्षिप्तिका कहते थे। जैसे ग्याल, ध्रुपद, धमार इत्यादि आक्षिप्तिका निबद्ध गान की ही श्रेणी में आते हैं। निचद्ध अनिवद्ध गान जो रचनाऐ नियमानुसार ताल मे बंधी हुई होती हैं, वे सब "निवद्ध गान" के पान आती हैं इममें तीन प्रकार हैं-१ प्रबन्ध वस्तु ३ रूपक। इनके विभिन्न भागों गुलमामाका नामक नया ar