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पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१५

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  • सङ्गीत विशारद *

पर गीत का दूसरा क्लाइमेक्स निर्माण कीजिये, जहा आपको स्वर का घनत्व इतना अल्प कर देना होगा, जिससे उमका सागीतिक रूप सुन्दर बन सके । न मोड पर स्वर में इतने प्रवाह का आविर्भाव कीजिए कि उसकी गतिशीलता में गीत के भावों को स्वाभाविक रूप में आगे बढ़ने के लिये स्वस्थ वातावरण मिल जाये। अन्तिम दसर्व मोड पर खर का तीसरा क्लाइमेक्स बनाते हुए आरोह-अवरोह की दोनों गतियों को "प्रल्पीस विन्दु" पर केन्द्रित कीजिये । प्राय यह देखा जाता है कि गायक गीत गाते वक्त स्वर के उपर्युक्त रूपो मे अनिमिज्ञ होकर गाता है, जिससे उसके गाए हुए गीतों को अभिलेसित करने मे अभिलेसन कर्ता को कठिनाई पड़ती है। उसकी सहूलियत के लिये आपको स्वर उसी दशा में मोडना पडेगा, जैसा कि स्वर की शिल्पज्ञता आपको विवश करे। स्वर की शिल्पज्ञता की पूरी ध्यौरी आपको जाननी चाहिए। यह थ्योरी लगभग वही है जो आपको ऊपर निर्देश की जा चुकी है। स्वर विज्ञान की इस व्यापक थ्योरी से गाए हुए गीत पर गायक को अधिक परिश्रम एव सावधानी बरतनी होगी। प्रारम्भ में कुछ बाधायें अवश्य आ सकती हैं, किन्तु जब वह परिस्थिति का अभ्यस्त हो जायेगा तब उसको यही कार्य सरल हो जायेगा। वास्तव में स्वर की अनेक प्रक्रियायें हैं, इन प्रक्रियाओं की अनेक उप प्रक्रियाये भी हैं। जिनमें से मुख्य यह हैं -"कोवल्य" "चोणेल्य" 'माणील्य"। "कीवल्य" में स्वर का अर्द्ध घनत्व होता है। "चीणेल्य" में स्वर का पूर्ण घनत्व बनकर रुपये जैसी टकार होने लगती है, जिमसे स्वर में स्पष्टता, स्वच्छता पूर्ण रूपेण आ जाती है और "माणील्य" में स्वर के तीन सयुक्त घुमाव होते हैं, जिनको आप दीपक राग में सुगमता से अभिव्यक्त कर सकते हैं। मारणील्य का प्रयोग विशेष रागों में ही होता है, हर स्थान पर लागू नहीं हो सकता। (३) गोष्ठियां और सङ्गीत सागीतिक जीवन को प्रभावशाली एन गौरवपूर्ण बनाने के लिये गोष्ठियों का भी अपना मूल्य है। इनके अभाव में सगीतकार की प्रतिभा ऐसी मालूम पड़ती है मानो किसी सरोवर को चारों तरफ से सीमित कर दिया गया हो, तथा जिसमें पानी के बहाव का कोई साधन न हो और न पानी के आने का । तो वन्द पानी की क्या दशा होगी? यही कि वह कुछ दिनों में सड़ जायेगा और उसमें बढवू पैदा हो जायेगी। इसी प्रकार आपका भी यही हाल हो सकता है, यदि आप अपनी गतिशीलता को सीमित करके चारों तरफ के आवागमन से उसे अवरुद्ध कर लेंगे, तो फिर आपके अन्दर प्रवाह नहीं रहेगा और जव मनुष्य की प्रतिभा का प्रवाह समाप्त हो जाता है, तो फिर वह पतन के गर्त में गिरता चला जाता है और एक दिन वह सम्पूर्ण रूप से गिर जाता है। फिर वहा से उठना असम्भव सा हो जाता है। गोष्ठिया जीवन के झाड-मकाडों का विनाश करती हैं और जो जड़ता का कुहरा जीवन के इर्द गिर्द आच्छादित हो जाता है, उसको छितरा देती हैं तथा जीवन को उत्साह, स्फूर्ति और नवीन भावनाओं से परिपूर्ण कर देती हैं। गोप्ठियाँ सङ्गीतकारों के लिये विशेप उपयोगी हैं, क्योंकि इन गोष्ठियों के अवसर पर अनेक कलाकारों का मिलन होता है, विचार विमर्श होता है और होता है कला का FacxxeraceaIY: