पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

  • सङ्गीत विशारद *

१३ सके। कहने का तात्पर्य यह नहीं कि आप अपने संगीत का सृजन संकीर्णता की परिधि में करें, ऐसा अर्थ आप कदापि न लगायें, लेकिन हां, अपनी मौलिकता के स्मृति स्तम्भ पर विदेशी भावनाओं की पुष्पांजलि न चढ़ायें। हां, आप अपनी प्रतिभा की उपत्यका में सुव्यवस्थित ढङ्ग से सङ्गीत का राग इस प्रकार अलापे कि स्वरलहरी में भारतीय झन्कार हो और उस झन्कार में अन्तर्राष्ट्रीय सङ्गीत का समन्वय हो। किन्तु समन्वय करते समय आप अपने जीवन की प्रबल धारा को विदेशी धरातल की ओर न मोड़े, अपितु विदेशी जीवन की धारा को आप भारतीयता की पृष्ठभूमि पर प्रवाहित करना सीखें। दोनों धाराओं के समन्वय में भारतीय प्रतिभा सर्वोपरि रहे। यदि आपके अन्दर समन्वय प्रतिभा का अभाव है, तो आप विदेशी सङ्गीत की ओर कभी न देखिये, क्योंकि दोनों धाराओं को मिलाने के लिये बहुत उच्चकोटि की प्रतिभा की आवश्यकता है, जोकि बिना नियमित अध्ययन के प्राप्त नहीं हो सकती। स्वतन्त्र भारत में सङ्गीत का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है, अतएव आपको अपना सांगीतिक ज्ञान अधिक से अधिक मात्रा में बढ़ाना चाहिये। स्वतन्त्र भारत में ज्ञानवर्धन ' की अधिक आवश्यकता इसलिये भी है कि आपको विश्व के राष्ट्रों में अपनी सांस्कृतिक कला का प्रतिनिधित्व करना है। आजकल अन्य राष्ट्रों के सांस्कृतिक मण्डल अपने यहां आते हैं और अपने देश के दूसरे राष्ट्रों में जाते हैं। इन शिष्ट मण्डलों का ध्येय तभी पूरा हो सकता है, जबकि इनके सदस्य गण उच्च कोटि के प्रतिभाशील हों और वे अपनी अपूर्व प्रतिभा को अन्य राष्ट्र के नेताओं, कलाकारों के सन्मुख अभिव्यक्त कर सकें, तभी तो स्वतन्त्र भारत का सांस्कृतिक गौरव बढ़ेगा। इन्हीं सांस्कृतिक मान्यताओं पर एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से मैत्री स्थापित करता है। इसलिये सांस्कृतिक थाती जिस देश की जितनी उच्च होगी, वह देश उतना ही अधिक दूसरे देशों को प्रभावित कर सकेगा। अतः अपने देश के मान और मर्यादा की रक्षा के लिए प्रत्येक सङ्गीतकार का पवित्र कर्तव्य है कि वह पुस्तकालय रग्वने की आदत डाले। (२) स्वर विज्ञान और सङ्गीत स्वर की विभिन्न धाराओं को सांगीतिक रूप देने के लिये स्वर की पूर्ण फिलोस्फी ( तत्वज्ञान ) समझ लेना पूर्ण आवश्यक है, क्योंकि बिना तत्वज्ञान के समझे हुए आप उसका सांगीतिक रूप सुन्दर ढङ्ग से प्रस्तुत नहीं कर सकते । स्वर के उच्चारण में दस प्रकार के मोड़ आते है। पहिले मोड़ पर स्वर को शनैः प्रसारित करना चाहिए । दूसरे 'मोड़ पर प्रसारित किये हुए स्वर में गूंज भरनी चाहिये। तीसरे मोड़ पर गुजित वायुमण्डल में गीतों के भावों का इस प्रकार सम्पादन करना चाहिए कि प्रत्येक भाव स्वर की गहराई में उपयुक्त हो जाय । चौथे मोड़ पर स्वर में घनत्व शक्ति स्थिर करनी चाहिए, पांचवें मोड़ पर आरोह के लिये जितना भी अधिक हो सके उतना अधिक स्वर को फैलाइये, जिससे सम्पूर्ण आरोह का दबाब पूर्णरूपेण बैठ जाये। छटवें मोड़ पर स्वर संधान करके गीत का प्रथम क्लाइमेक्स ( सीढ़ी) बनाइये, जिससे आप गीत-सौंदर्यको स्थिर कर सकें और गीत अभिलेखन कर्ता को इतना समय मिल जाये कि वह आपके स्वर चित्र की पूर्ण प्रतिलिपि भर सके । सातवें मोड़, पर अवरोह का प्रस्तुतीकरण करके, थोडे से