पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१६०

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  • सङ्गीत विशारद

१६६ ३६-परज दोनों मध्यम लीजिये, रिध कोमल सुखदाइ । सप वादी संवादि लखि, गुनिजन परज सुहाइ ।। राग--परज थाट- --पूर्वी जाति-सम्पूर्ण वादी--सां, सम्वादी-प स्वर--रेध कोमल, दोनों म वर्जित स्वर--कोई नहीं। आरोह-निसाग, मपधुनिसां । अवरोह--सां, निधुप, मैप, मगरेसा । पकड़--सां, निधुप, मपधप, गमग । समय--रात्रि का अन्तिम प्रहर । यह राग उत्तरांग प्रधान है, अतः इसमें तार षड़ज की चमक बहुत सुन्दर मालुम देती है । इस राग की गति कुछ चंचल है, इसीलिये बसन्त राग से यह अलग पहचान लिया जाता है । जब इस राग की कुछ ताने निषाद पर समाप्त की जाती हैं, तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है। सारेसार, निधनि यह स्वर इसमें बारम्बार दिखाई देते हैं । धपगमग, मधनिसां यह स्वर समुदाय रागदर्शक है । ३७-पूरिया थाट मारवा में जबहि, दीनो पंचम त्याग । गनि वादी संवादि सों, कह्यो पूरिया राग । वर्जित स्वर-प राग-पूरिया थाट-मारवा जाति-पाडव वादी-ग, सम्वादी-नि स्वर-रे कोमल, म तीव्र आरोह-निरेसा ग मध निरसां अवरोह-सां नि ध म ग रे सा पकड़-ग, निरेसा, निधनि मध, रेसा समय-संधिप्रकाश काल (सायंकाल) इस राग का मुख्य चलन मन्द्र और मध्य स्थानों में रहता है । यह संधिप्रकाश राग है। निषाद और मध्यम की संगति इसकी शोभा बढ़ाती है । मन्द्र सप्तक में सा, निधनिमग यह स्वर राग का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। ३८-सिंदूरा गंनि आरोहन त्याग कर, कोमल गनी बखान । सप संवाद बनाय कर, सुघर सिंदूरा जान ।।