- संगीत विशारद *
१७१ इसका गायन समय शास्त्रों में यद्यपि मध्य रात्रि का दिया गया है, किन्तु बसंत ऋतु में यह राग चाहे जिस समय गाया-बजाया जा सकता है, ऐसा सङ्गीतज्ञों का मत है। ख्याल गायकी में कहीं-कहीं दोनों धैवत और दोनों गन्धारों का प्रयोग भी इस राग में पाया जाता है । इस राग में म ध की सङ्गति भली मालुम देती है। निनिपम, पग, म, ध, निसां, यह स्वर समुदाय बहार में बार-बार दिखाई देता है। ४१-अड़ाना कोमल गध, दोउ नी लगें, सप सम्बाद बताहि । चढत ग, उतरत धा बरजि, राग अडाणा माँहि ॥ राग-अड़ाना थाट-आसावरी जाति-पाडव वर्जित स्वर-आरोह में ग, अवरोह में ध आरोह-सारेमप, धनिसां । अवरोह-सांधनिपमप, गम, रेसा पकड़-सां, ध, निसां, ध, निपमप, गमरेसा समय-रात्रि का तीसरा प्रहर वादी-सां, सम्वादी प स्वर-गध कोमल तथा दोनों निषाद कोई-कोई ग्रन्थकार इस राग में तीव्र धैवत लगाते हैं और इसे काफी थाट का राग मानते हैं। इस राग का आरोह करते समय गान्धार छोड़ देते हैं । किन्तु आरोह में गन्धार "निसागम” इस प्रकार प्रायः लिया जाता है । अवरोह में “ग म रे सा” इस प्रकार वक्र गंधार है । मध्य और तार सप्तक में इसका विस्तार अधिक है। ४२-धानी वादी गा, संवादि नी, गनि सुर कोमल जान । रिध वर्जित कर गाइये, औडुव धानी मान । बर्जित--रे,ध राग--धानी आरोह--सा, गमप, निसां । थाट- काफी अवरोह--सां, निप, मग, सा । जाति--औडुव पकड़-निसाग, मप, निसां, सांनिप वादी-ग, सम्वादी नि मग, सा। स्वर--ग नि कोमल --सर्वकालिक समय-- कोई-कोई गायक धानी के अवरोह में थोड़ा सा रिपभ लेते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में भी धानी का उल्लेख मिलता है । सङ्गीत पारिजात में रे वर्जित तथा रेध वर्जित इस प्रकार धानी के २ रूप दिये हैं।