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- सङ्गीत विशारद *
४३-मांड़ सप वादी सम्बादि कर, नी स्वर कंपित होड । शुद्ध और सम्पूर्ण है, मांड राग कह सोइ ॥ राग--माड थाट-विलावल जाति-सम्पूर्ण वादी-सा, सम्वादी प स्वर-शुद्ध वर्जित-कोई नहीं आरोह-सगरेमग पमधप निवसा । अवरोह-साधनिप धमपग मसा । पकड-सा, रेग, सा, रे, ममप, ध, पधसा । समय-सर्वकालिक , यह राग मालवा ( राजस्थान ) प्रान्त से उत्पन्न हुआ है, इसका स्वरूप वक्र है। इस राग मे स, म, प यह स्वर अत्यन्त सहत्वपूर्ण हैं, निपाद पर कम्पन इम राग की विशेषता है । आरोह में रे - ध स्वर दुर्वल हैं, अवरोह में वक्र हैं। जैसे सग, रेम, गप इत्यादि। ४४-गौड़ मल्हार गनि के दोनों रूप लखि, चढते अल्प सम्हार । मस वादी सवादि तें, कहत गौडमल्लार ॥ राग-गौडमल्हार वर्जित-कोई नहीं थाट-काफी आरोह-सा, रेमप, धसा । जाति-सम्पूर्ण अवरोह-सा निपमपगमरेसा । वादी-म, सम्वादी सा पकड-रेगरेमगरेसा, पमप धसा धपम । स्वर-दोनों गनि समय-दोपहर दिन, वर्षाऋतु में प्रत्येक समय इस राग के बारे में २ मत हैं। एक मत इस राग को काफी थाट का मानता है तो दूसरा मत इमे समाज थाट का बताता है। यह मतभेद लेकर गन्धार स्वर के बारे में दोनों मत अपने विचार भिन्न रसते हैं। स्याल गायक तीव्र गन्धार लेते हैं और ध्रुपद के गायक कोमल ग लगाते हैं, एव कभी-कभी दोनों गन्धारों का प्रयोग भी इस राग में दिसाई देता है। यह मौसमी राग है, अत इसके गीतों में प्राय वर्षाऋतु का वर्णन मिलता है। ४५-झिमोटी गा वाढी, संवादि नी कोमल लियो निपाद । राग मिझोटी गाइये, प्रथम रात्रि के वाढ ॥ विचार इस प्रकार प्रगट किये हैं -