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- सङ्गीत विशारद *
राग-पटदीप वर्जित-आरोह में रेध पाट- काफी आरोह-निसा गम पनिसा जाति-औडुव सपूर्ण अवरोह सानिधप मगरेसा वादी--पचम, सवाटो पड़ज पकड-साग मगरे सानि, सागरेसा स्वर-कोमल गन्धार समय-सायंकाल यह राग भीमपलासी से बहुत कुछ मिलत-जुलता है, किन्तु भीमपलासी में कोमल निपाद है और इसमे शुद्ध है। इस कारण कोमल निपाट का बचाव करके इसे गाना चाहिये। इसी प्रकार का एक राग पटदीपकी (प्रदीपकी ) नामक श्री भातखण्डे की क्रमिक छटी पुस्तक मे मिलता है, किन्तु उसमें कोमल निपाद तथा दोनों गन्धार लिये गये हैं, इससे वह प्रकार अलग ही है। पटदीप राग में निपाद पर विश्राति लेकर उस निपाद मे ही जोड कर सागरेसा यह स्वर समुदाय लेना चहिये, ऐसा मत श्री पटवर्धन जी का है । ५७–रागेश्री (रागेश्वरी) आरोहन परि वर्ण्य कर, उतरत पंचम हानि । दोऊ नी, सम्बाद गनि, रागेश्वरी बखानि ।। राग-रागेश्री वर्जित-आरोह में परे,अवरोह में-प थाट-समाज आरोह-साग मधनिसा जाति-औडुव-पाडव अवरोह-सानि धम गरेसा । वादी-ग, सवादी नि पकड-गमधनि सानिधऽ मगरेसा। स्वर-दोनों निपाद रात्रि दूसरा प्रहर इसमें पचम स्वर तो बिल्कुल नहीं लगता ओर आरोह में रिपम भी नहीं लगाया जाता। धम की स्वर सगति इसमें बहुत सुन्दर मालुम होती है। उत्तराग में वागेश्री का आभास होता है किन्तु पूर्वाग मे आया हुआ तीव्र गवार वागेश्री का भ्रम हटा देता है, क्योंकि वागेश्री में कोमल गधार लगता है। ५८-पहाड़ी औडुव करके गाइये, मनि को दीजै त्याग । सप वाढी सम्बादि ते, कहत पहाडी राग । राग -पहाडी वर्जित-मनि थाट-विलावल आरोह-सारेगप वसा अवरोह- -साधप गप गरेसा वादी-पडज, सवादी-पचम पकड-ग, रेसा, ध, पवसा । समग--सर्वकालिक विचार इम प्रभार प्रगट किये हैं. समय- जाति-औडुव