- सङ्गीत विशारद *
१७६ इस राग में मध्यम और निषाद स्वर इतने दुर्बल हैं कि उन्हें वर्जित ही कहना उपयुक्त होगा । जब इस राग में भूपाली की छाया दिखाई देने लगती है तो चतुर गायक इसके अवरोह में थोड़ा मध्यम गमग रे सा इस प्रकार लगाकर भूपाली से इसे बचा लेते हैं। मन्द्र सप्तक के धैवत पर विश्रान्ति लेने से इस राग का सौन्दर्य बढ़ता है। ५६-जोगिया आरोही वर्जित गनी, अवरोहन गा त्याग । रिध कोमल, सम्वाद मस, कहत जोगिया राग ॥ राग-जोगिया वर्जित स्वर-आरोह गनि, अवरोह ग थाद-भैरव आरोह-सा रे म प ध सां जाति-औडव-पाडव अवरोह-सां नि ध प ध म रे सा वादी-म, सम्वादी-सा पकड़-म, रेसा, सारेरेमरेसा स्वर-रेध कोमल समय-प्रातःकाल रेम और धम की स्वरसङ्गति इस राग की रंजकता बढ़ाती है । मध्यम स्वर मुक्त रखने से यह राग विशेष अच्छा लगता है। सङ्गीत मर्मज्ञों का कहना है कि इस राग की रचना भैरव और सावेरी के संमिश्रण से हुई है। सावेरी राग कर्नाटकी ग्रंथों में पाया जाता है । भातखंडे मतानुसार इस राग के अवरोह में किसी-किसी स्थान पर कोमल निषाद लेते हुए कोमल धैवत पर आते हैं। ६ -मेघमल्लार जब काफी के मेल सों, धग सुर दीने टार । दोउ निषाद, सम्वाद सप, औडुव मेघमल्हार ।। सा राग-मेघमल्लार थाट-काफी जाति-औडुव वादी--सा, सम्वादी-प स्वर-दोनों नि, बाकी शुद्ध वर्जित-धैवत, गन्धार। आरोह-सा मरे मप निनिसां । अवरोह-सां नि प मरे मनि रेसा । पकड़-मरेपमरेसा, निपनिसा । समय--रात्रि का प्रथम प्रहर । 7 म मम मरेप यह स्वर विन्यास मेघमल्लार की विशेषता है। रिषभ स्वर पर होने वाला आन्दोलन इस राग की सुन्दरता बढ़ाकर राग का स्वरूप व्यक्त करता है। यह आन्दोलन रे, रे, रे, इस प्रकार रिषभ पर मध्यम का कण लगाकर कई बार किया जाता है। मध्यम पर अनेक बार विश्रान्ति होती है, जिससे सारङ्ग राग की छाया दूर होती है। इस राग में धैवत लगाकर भी कोई-कोई गायक गाते हैं।