पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/१९६

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  • सङ्गीत विशारद *

२११ पखावज की बनावट दांया तबला और बांया डग्गा दोनों के निचले भाग मिलाकर एक जगह ढोलक की तरह रख दिये जाय तो पखावज का ही रूप बन जाता है। तबला और पखावज में एक भेद तो यह है कि पखावज में दांया और बांया अलग-अलग न होकर दोनों का आकाश (पोल ) एक ही है । यही कारण है कि तबले की अपेक्षा पखावज में गूंज अधिक पाई जाती है, क्योंकि एक तरफ थाप देने से दूसरी ओर गूज स्वयं उत्पन्न होती है । दूसरा भेद तबला और पखावज में यह है कि तबला के बोल बजाने में थाप का प्रयोग कम होता है और उँगलियों का काम अधिक होता किन्तु पखावज में थाप का काम अधिक महत्व रखता है और उँगलियों का काम कम होता है। पखावज में बांई ओर गीला आटा लगाया जाता है, जब स्वर नीचा करना होता है तो आटा कुछ अविक लगाते हैं और ऊँचा स्वर करने के लिये आटा कम कर देते हैं। तबला और पखावज मिलाने का ढंग लगभग एक सा ही है अतः उसे यहां दुहराने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। पखावज के बोल सङ्गीत रत्नाकर ग्रन्थ में 'मृदङ्ग' के १६ वर्ण माने गये हैं, जिनका प्रमाण निम्नलिखित श्लोक से मिलता है:- ङ वर्जितः क वर्गश्च टतवर्गों रहावपि । इति षोडशवर्णाः स्युरुभयोः पाटसंज्ञका ।। अर्थात् क-ख-ग-घ-ट-ठ-ड-ढ त-थ-द-ध-न-र-म-ल । किन्तु आधुनिक कलाकारों द्वारा मृदङ्ग के अक्षर-बोल दूसरे ही निश्चित किये गये है। जिन्हें ३ भागों में बांटा जाता है। ( १ ) खुले बोल--जिन अक्षरों को बजाने पर सुरीली अांस निकलती है, वे खुले बोल कहलाते हैं। (२) बन्द बोल--जिनको बजाने के बाद सुरीली ध्वनि न निकलकर दबी हुई आवाज निकलती है, वे बन्द वोल कहे जाते हैं। (३) थाप --जब स्याही के ऊपर वाले आधे भाग पर सब अँगुलियां मिलाकर पंजा मारा जाय और शीघ्र ही कनिष्टका अँगुली की ओर वाला हथेली का भाग स्याही के किनारे पर आजाय, इस कृत्य को थाप या थप्पी कहते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित मृदङ्ग के बोलों का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, किन्तु आधुनिक मृदङ्ग वादक निम्नलिखित बोल मानते है। यद्यपि इनमें विभिन्न मत हैं, किन्तु ये ही अधिक उपयोगी मालुम होते है:-

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