पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/२११

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  • सङ्गीत विशारद *

करके अपने शागिर्दो को भी याद कराई और जब बादशाह को यह कवितायें रयाल में गाकर सुनाई गई तो वे बडे प्रभावित हुए और यह जानने की इच्छा प्रगट की कि यह 'सदारगीले' कौन है ? न्यामतसा के शागिर्दो ने जवाब दिया कि हमारे उस्ताद जिनका असली नाम न्यामतसा है, उनका ही तखल्लुस ( उपनाम ) 'सदारगीले' है। बादशाह ने कहा अपने उस्ताद को बुलाकर लाओ । न्यामतसा दरवार मे उपस्थित हुए तो मोहम्मद शाह ने उनके पुराने अपराधों को क्षमा करके, उन्हें पुन आदर पूर्वक अपने दरवार में रख लिया और वे वीणा बजाकर गायकों का साथ करने के लिए स्थायी रूप से दरबार में रहने लगे। इस प्रकार सदारङ्ग ने अपना रग जमा लिया और गुणियों में आदर प्राप्त कर लिया। सदारङ्ग के ख्यालों में विशेष रूप से शृङ्गार रस पाया जाता है। कहा जाता है कि सदारङ्ग ने सय अपनी ये चीजें महफिलो में नहीं गाई । उनका कहना था कि सुद अपने लिये या अपने सान्दान के लिये मैंने यह चीजें नहीं बनाई हैं, बल्कि बादशाह सलामत को सुश करने के उद्देश्य से ही इनकी रचना की गई है। इतना होते हुए भी इनकी रचनाए समाज में काफी फैल गई । ख्याल गायक और गायिकाओं ने इनकी चीजें खूव अपनाई । सदारङ्ग के साथ-साथ कुछ चीजों में अदारङ्ग का नाम भी पाया जाता है । इसके वारे में एक इतिहासकार का कथन है कि न्यामतमा के २ पुत्र थे, जिनका नाम फीरोजसा और भूपतसा था । 'अदारङ्ग फीरोजसा का ही उपनाम था। भूपतसा का उपनाम 'महारङ्ग' था । इस प्रकार पिता के साथ-साथ दोनों पुत्र भी सगीत के क्षेत्र में अपना नाम मर्वदा के लिये अमर बना गये। वालकृष्ण वुवा ( इचलकरंजीकर ) श्री बालकृष्ण बुवा इचलकरजीकर अखिल भारतीय सङ्गीत कला कोविदों में एक उच्च श्रेणी के गायक हो गये हैं। प्रसिद्ध सङ्गीताचार्य प० विष्णुदिगम्बर पलुस्कर इन्हीं के शिप्य ये। बालकृष्ण बुआ का जन्म सन् १८४६ ई० (शाके १७७१ ) में कोल्हापुर के पास चन्दूर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता रामचन्द्र बुआ स्वय एक अच्छे गायक थे, इस कारण वाल्यकाल से ही इनके अन्दर भी सङ्गीत की अभिरुचि उत्पन्न हो गई। भाऊ चुआ, देवजी वुआ, हद्द सा, हस्सूखा आदि विद्वानों से इन्होंने ध्रुपद- धमार, रयाल और टप्पा की शिक्षा पाई, अत इन चारों अगों के आप कलावन्त थे। कुछ समय बाद इन्हें जोशी युवा नामक प्रसिद्ध सङ्गीतज्ञ से भी सङ्गीत शिक्षा प्राप्त हुई और अपने परिश्रम तथा रियाज के द्वारा थोडे समय में ही बालकृष्ण बुआ गायनाचार्य बन गये। आपने समस्त हिन्दुस्तान व नेपाल का भ्रमण किया। अनेक सङ्गीत-सम्मेलनों में भाग लिया। बम्बई में आपने गायन ममाज की स्थापना की और सङ्गीतदर्पण नाम का एक मासिक पत्र भी चलाया, किन्तु श्वास रोग के कारण आपको नम्बई छोडनी पडी। कुछ समय बाद आप औंध के स्टेट गायक हो गये। वहा प्रात काल अपना रियाज़ कुरते और फिर शिष्यों को पढाते थे। 4 ..