- सङ्गीत विशारद *
२२७ कुछ समय बाद आपने इचलकरंजी नामक रियासत में स्थायी रूप से राज-गायक की पदवी स्वीकार कर ली, तभी से आप इचलकरंजीकर के नाम से प्रसिद्ध हो गये और पुनः समस्त भारत का भ्रमण करके आपने सङ्गीत का प्रचार किया। इसी बीच आपके एक मात्र सुपुत्र का निमोनिया से यकायक देहान्त हो गया और फिर एक सुपुत्री भी चल बसी । इन आघातों से आपके स्वास्थ्य को विशेष धक्का पहुँचा, फलस्वरूप सन् १६२६ में इचलकरंजी में ही आप स्वर्गवासी होगये । . पं० रामकृष्ण वझे आपका जन्म सन् १८७१ ई० में सावन्त वाड़ी के ओंका नामक ग्राम में हुआ था। १० मास की शिशु अवस्था में ही आपको छोड़कर आपके पिताजी स्वर्गवासी हो गये, अतः इनका पालन-पोषण माता के द्वारा ही हुआ। ४ वर्ष की अवस्था में इनकी माताजी इन्हें लेकर कागल नामक स्थान में आकर अन्ना खाहब देश पांडे के यहां रहने लगीं। बाल्यकाल में विद्या अध्ययन के समय आपकी रुचि का प्रवाह सङ्गीत की ओर मुड़ गया । अध्यापकों के अनुरोध पर आपकी माताजी ने आर्थिक दशा प्रतिकूल होने पर भी, किसी प्रकार आपको सङ्गीत शिक्षा दिलाने का प्रबन्ध किया । उस समय भाग्य से इन्हीं के गांव में बलवन्तराव पोहरे नामक दरबारी गायक रहते थे, उनसे आपने २ वर्ष तक सङ्गीत शिक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् मालवन में विठोवा अन्ना हड़प के पास रहकर उनकी गायकी सीखी। बारह वर्ष की अवस्था में ही आपका विवाह कर दिया गया । विवाह होते ही आपके सामने आर्थिक समस्या खड़ी हो गई और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये आप पूना होते पैदल ही बम्बई जा पहुँचे । बम्बई में गा-गा कर दस बारह रुपये कमाये। वहां से आप नाना साहब पानसे के पास सङ्गीत सीखने के उद्देश्य से इन्दौर पहुंचे। वहां आपको बन्देअली तथा चुन्ना के गाने और उनकी वीणा सुनने का अवसर मिला। तत्पश्चात् आपने ग्वालियर में रहकर अनेक कष्ट उठाते हुए भी अपनी सङ्गीत- शिक्षा जारी रक्खी । खां साहब निसारहुसेन पर आपकी काफी श्रद्धा थी। उनकी फटकारें खाकर भी आपने बहुत कुछ सङ्गीत शिक्षा उन्हीं से प्राप्त की। इस बीच इन्हें प्राचीन उस्तादों की संकीर्ण मनोवृत्तियों के बड़े कटु अनुभव हुए । फलस्वरूप आपने सङ्गीत शिक्षा देने एवं सङ्गीत सम्बन्धी पुस्तकें प्रकाशित करने का संकल्प कर लिया । अन्त में उनका आर्थिक जीवन भी सुखमय होगया था। शारीरिक गठन सुन्दर एवं स्वास्थ्य अच्छा होने के कारण आपका व्यक्तित्व भी प्रभावशाली था। किन्तु अन्तिम दिनों में आपको मधुमेह जैसी दुष्ट बीमारी ने निर्बल बना दिया। फलस्वरूप आप शनैः- शनैः अधिक निर्बल होते गये और ५ मई सन् १९४५ ई० को पूना में आपका देहावसान - हो गया।