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पृष्ठ:संगीत विशारद.djvu/३१

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सङ्गीत विशारद


 की गई बाद में (सन् १९५० में) इसका हिन्दी अनुवाद सङ्गीत कार्यालय हाथरस से प्रकाशित हुआ। जिससे हिन्दी के मङ्गीत विद्यार्थियों को बहुत लाभ हुआ।

श्री विष्णु दिगम्बर जी पलुस्कर—श्री विष्णु दिगम्बर जी पलुस्कर का जन्म १८७२ ईसवी में श्रावणी पूर्णिमा के दिन कुरुन्दवाड़ (बेलगाम) में हुआ। आपको सङ्गीत शिक्षा गायनाचार्य पं॰ बालकृष्ण बुवा से प्राप्त हुई। १८९६ ई॰ में आपने सङ्गीत प्रचार के हेतु भ्रमण प्रारम्भ किया। पलुस्कर जी ने अपने सुमधुर और आकर्षक सङ्गीत के द्वारा सङ्गीत प्रेमी जनता को आत्म विभोर कर दिया। पंडित जी के व्यक्तित्व के प्रभाव से सभ्य समाज में सङ्गीत की लालसा जाग उठी, जिसके फलस्वरूप सङ्गीत के कई विद्यालय स्थापित हुए, जिनमें लाहौर का गान्धर्व महाविद्यालय सर्व प्रथम ५ मई १९०१ ई॰ को स्थापित हुआ। बाद में बम्बई का गान्धर्व महाविद्यालय स्थापित हुआ और यही मुख्य केन्द्र बन गया। पंडित जी का कार्य आगे बढ़ाने के लिये उनके शिष्यों के सामूहिक प्रयत्न से "गान्धर्व महाविद्यालय मण्डल" की स्थापना हुई, जिसके बहुत से केन्द्र विभिन्न नगरों में स्थापित हो चुके हैं।

सन् १९२० ई॰ से पलुस्कर जी कुछ विरक्त से रहने लगे थे, अंतः १९२२ में नासिक में रामनाम आधार आश्रम आपने खोला। तबसे आपका सङ्गीत भी "रामनाम मय" हो गया। इस प्रकार सङ्गीत को पवित्र वातावरण में स्थापित करके अन्त में यह सङ्गीत का पुजारी २१ अगस्त १९३१ को मिरज में प्रभु धाम को प्रस्थान कर गया।

पण्डित जी द्वारा सङ्गीत की कई पुस्तकें भी प्रकाशित हुई थीं, जिनमें से कुछ के नाम ये हैं—सङ्गीत बालबोध, सङ्गीत बाल प्रकाश, स्वल्पालाप गायन, सङ्गीत तत्वदर्शक, रागप्रवेश, भजनामृत लहरी इत्यादि।

आपकी स्वरलिपि भातखण्डे पद्धति से भिन्न है। प्रोफ़ेसर डी॰ वी॰ पलुस्कर, जो वर्तमान गायकों में एक अच्छे गायक माने जाते हैं, आपके ही सुपुत्र हैं।



स्वतन्त्र भारत में सङ्गीत

भारत स्वतंत्र होकर जबसे अपनी राष्ट्रीय सरकार स्थापित हुई है, तबसे सङ्गीत का प्रचार द्रुतिगति से देश में बढ़ रहा है। जगह-जगह स्कूल और कालेजों में संगीत पाठ्यक्रम में सम्मिलित हो गया है, एवं कुछ विश्व विद्यालयों की बी॰ ए॰ परीक्षाओं में सङ्गीत भी एक विषय के रूप में रख दिया गया है। इधर रेडियो द्वारा भी संगीत का प्रचार दिनों दिन बढ़ रहा है। कुछ सिनेमा फ़िल्मों से भी हमें अच्छा संगीत मिलसका है। संगीत की अनेक शिक्षण संस्थायें भी विभिन्न नगरों मे सुचारू रूप से चल रही हैं। देश का शिक्षित वर्ग संगीत की ओर विशेष रूप में आकृष्ट होकर अब संगीत का महत्व समझने लगा है। कुलीन घराने के युवक-युवती और कन्याएँ संगीत शिक्षा गृहण कर रही हैं एवं जनसाधारण में भी संगीत के प्रति आशातीत अभिरूचि उत्पन्न हो रही है। इधर संगीत सम्बन्धी पुस्तके भी अच्छी-अच्छी प्रकाशित होने लगी हैं। संगीत कला के विकास के लिये यह सब शुभ लक्षण है, आशा है निकट भविष्य में ही भारतीय संगीत उच्चतम शिखर पर आसीन होकर अपनी विशेषताओं से संसार का मार्ग दर्शन करेगा।